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तत्त्वमीमांसा
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जिस रूप में आयुष्य का बंध हुआ है उस की उस रूप में अवस्थिति को यथायुनिर्वृत्तिकाल कहा जाता है। यह नारक आदि आयुष्य लक्षण वाला है। आयुष्यकर्म के अनुभव से विशिष्ट यह अद्धाकाल ही है। यह सारे संसारी जीवों के होता है।' ___ मृत्यु भी काल की पर्याय है उसे मरणकाल कहा गया है।'
सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्ध रखने वाला अद्धाकाल कहलाता है। काल का प्रधान रूप अद्धा-काल ही है। शेष तीनों इसी के विशिष्ट रूप हैं | अद्धाकाल व्यावहारिक है । वह मनुष्यलोक में ही होता है। इसलिए मनुष्य लोक को समयक्षेत्र कहा जाता है। अढाई द्वीप में ही मनुष्य निवास करते हैं। उसको ही समयक्षेत्र कहा गया है।' निश्चय-काल जीव-अजीव का पर्याय है, वह लोक-अलोक व्यापी है। उसके विभाग नहीं होते। काल का अन्तिम भेद समय है। परमाणु मंदगति से एक आकाश प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाता है उतने काल को समय (क्षण) कहा जाता है। समय अत्यन्त सूक्ष्म है। आगमों में कमलपत्रभेदन, जुलाहे द्वारा जीर्ण वस्त्र का फाड़ना आदि उदाहरणों से उसे समझाया गया है। निश्चय एवं व्यवहार काल
निश्चय और व्यवहार के भेद से काल दो प्रकार का परिगणित है। निश्चय काल का लक्षण वर्तना है। उत्तराध्ययन में काल का यही लक्षण निर्दिष्ट है। आचार्य अकलंक ने स्वसत्तानुभूति को वर्तना कहा है। वर्तना सभी पदार्थों में सर्वत्र होती है अत: निश्चय काल सबमें एवं सर्वत्र विद्यमान है।
तत्त्वार्थसूत्र में काल के पांच लक्षण बतलाए गए हैं - वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ।' इनमें वर्तना और परिणाम का सम्बन्ध नैश्चयिक काल से तथा क्रिया, परत्व और अपरत्व का सम्बन्ध व्यावहारिक काल से है।
अकलंक के अनुसार मनुष्य क्षेत्रवर्ती समय, आवलिका आदि व्यावहारिक काल के द्वारा ही सभी जीवों की कर्मस्थिति, भव-स्थिति और काय-स्थिति आदि का परिच्छेद 1. भगवतीवृत्ति पत्र 533 2. वही, वृत्ति पत्र 533 3. वही, वृत्ति पत्र 5 33
अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 2/122 5. द्रव्यानुयोगतर्कणा, 10/14, तुलनीय पातंजलयोगदर्शनम्, 3/52, यावता वा समयेन चलित: परमाणु:
पूर्वदेशं जह्यादुत्तरप्रदेशमुपसम्पद्येत स काल: क्षण: । 6. अणुओग्दाराइं, सूत्र 417 7. उत्तरज्झयणाणि, 28/10, वनणा लक्खणो कालो। 8. तत्त्वार्थवार्त्तिक, 522/4. प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तीतैकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना। 9. तत्त्वार्थसूत्र, 5/22. वर्तना परिणाम: क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ।
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