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जैन आगम में दर्शन
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है किंतु काल के स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें परस्पर भिन्नता है । श्वेताम्बर परम्परा काल के अणु नहीं मानती तथा व्यावहारिक काल को समयक्षेत्रवर्ती तथा नैश्चयिक काल को लोक-अलोक प्रमाण मानती है । ' दिगम्बर परम्परा के अनुसार 'काल' लोकव्यापी और अणु रूप है। कालाणु असंख्य है, लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है।'
पंडित सुखलालजी काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने के पक्ष में नहीं हैं। उनका इस संदर्भ में वक्तव्य है कि "निश्चयदृष्टि से देखा जाए तो काल को अलग द्रव्य मानने की कोई जरूरत नहीं है । उसे जीवाजीव के पर्याय रूप मानने से ही सब कार्य व सब व्यवहार उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यही पक्ष तात्त्विक है। अन्य पक्ष व्यावहारिक एवं औपचारिक हैं। काल को मनुष्य क्षेत्र प्रमाण मानने का पक्ष स्थूल लोक-व्यवहार पर निर्भर है और उसे अणुरूप मानने का पक्ष औपचारिक है।"
___पं. दलसुख मालवणिया ने काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानने वाली अवधारणा को प्राचीन माना है। उनका कहना है कि "काल को पृथक् नहीं मानने का पक्ष प्राचीन मालूम होता है, क्योंकि लोक क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों के मत में एक ही है कि लोक पंचास्तिकायमय है। कहीं यह उत्तर नहीं देखा गया कि लोक षड्द्रव्यात्मक है। अतएव मानना पड़ता है कि जैनदर्शन में काल को पृथक मानने की परम्परा उतनी प्राचीन नहीं। यही कारण है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में काल के स्वरूप के विषय में मतभेद भी देखा जाता है।"
आचार्य महाप्रज्ञ इन दोनों अवधारणाओं की संगति अनेकान्त के आधार पर करते हैं। उनका मानना है कि "काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव-अजीव की पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। निश्चयदृष्टि में काल जीवअजीव की पर्याय है और व्यवहारदृष्टि में वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वह परिणमन का हेतु है, यही उसका उपकार है। इसी कारण वह द्रव्य माना जाता है।
1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 5/248 2. द्रव्यसंग्रह, (ले. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, मथुरा, वी सं. 2475), गाथा 22,
लोगागासपदेसे, एक्कक्क जे ठिया ह एक्के क्का।
रयणाणं रासी इव, ते कालाणू असंखदव्वाणि ।। 3. संघवी सुखलाल, दर्शन और चिंतन, (अहमदाबाद, 1957) खण्ड 1 - 2 पृ. 333 4. मालवणिया दलसुख, आगम युग का जैन दर्शन, पृ. 214 5. उत्तरज्झयणाणि, 2 8/10 का टिप्पण, पृ. 148
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