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________________ 26 जैन आगम में दर्शन आगम वाचना भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रुत को गणधरों ने आगम रूप में गुम्फित किया। काल के प्रवाह में प्राकृतिक आपदाओं के कारण जैन परम्परा में श्रुत की धारा अविच्छिन्न नहीं रह सकी। वह अव्यवस्थित हो गईं। भगवान् महावीर के उपदेशों को व्यवस्थित करने के लिए जैनाचार्यों की संगीतियां हुई। उस आगम-व्यवस्था की प्रक्रिया को वाचना कहा गया है। वीर निर्वाण के 9 8 0 या 99 3 वर्ष के मध्य तक आगम के संकलन की पांच प्रमुख वाचनाएं हुईं। प्रथम पाटलीपुत्र वाचना __ भगवान् महावीर के निर्वाण केलगभग 160 वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा। उस समय श्रमण संघ छिन्न-भिन्न हो गया। दुर्भिक्ष समाप्ति पर पुनः पाटलीपुत्र में मुनि संघ एकत्रित हुआ। ग्यारह अंग एकत्रित किए। भद्रबाहु स्वामी के अतिरिक्त सभी को बारहवां अंग विस्मृत हो चुका था। आचार्य भद्रबाहु उस समय महापाण ध्यान की साधना के लिए नेपाल गए हुए थे। संघ के विशेष निवेदन पर उन्होंने बारहवें अंग की वाचना देना स्वीकार किया। अनेक साधु उस वाचना को लेने गए थे किंतु उनमें से एकमात्र स्थूलभद्र ही उस ज्ञान को ग्रहण करने में सक्षम हुए। मुनि स्थूलभद्र दस पूर्वो का अध्ययन समास कर चुके थे। ग्यारहवें पूर्व की वाचना चल रही थी। मुनि स्थूलभद्र के द्वारा प्रमाद हुआ। बहिनों के आगमन पर अपनी श्रुत-ऋद्धि को दिखाने के लिए स्वयं ने सिंह का रूप धारण कर लिया। आचार्य भद्रबाहु को जब यह घटना ज्ञात हुई तब उन्होंने मुनि स्थूलभद्र को वाचना देना बंद कर दिया। मुनि स्थूलभद्र ने बहुत अनुनय-विनय किया तब अन्तिम चार पूर्वो की वाचना तो दी किंतु उनका अर्थ नहीं बताया। अर्थ की दृष्टि से अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु स्वामी ही थे। आचार्य स्थूलभद्र सूत्रत: चतुर्दशपूर्वी एवं अर्थत: दशपूर्वी ही थे।' पूर्वो के विच्छेद का क्रम भद्रबाहु स्वामी के साथ ही प्रारम्भ हो गया, जो क्रमश: लुप्त होते-होते सर्वथा विलुप्त हो गया। प्रथम वाचना के द्वारा श्रमण संघ को चारपूर्वन्यून द्वादशांगी प्राप्त हुई। यद्यपि स्थूलभद्र सूत्रत: चतुर्दशपूर्वी थे किंतु उन्हें चारपूर्व की वाचना दूसरों को देने का अधिकार नहीं था। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीर निर्वाण के 170 वर्ष बाद भद्रबाहु स्वामी के महाप्रयाण के साथ ही श्रुतकेवली का लोप हो गया। दिगम्बरों ने 1 6 2 वर्ष बाद श्रुतकेवली का लोप माना है। आवश्यकचूर्णि, पृ. 187, बारसवरिसोदुक्कालोउवट्ठितो, संजता इतोइतोयसमुद्दतीरे अच्छित्तापुणरविपाडलिपुत्ते मिलिता, तेसिं अण्णस्स उद्देसओ अण्णस्स खंडं, एवं संघाडितेहिं एक्कारस अंगाणि संघातिताणि, दिद्विवादो नत्थि, नेपालवत्तणीए य भद्दबाहुस्सामी अच्छंति चोद्दसपुव्वी .......पेसेह मेहावी सत्त पाडिपुच्छगाणि देमि, ........थूलभद्दसामी ठितो.........उवरिल्लाणि चत्तारि पुव्वाणि पढाहि, मा अण्णस्स देज्जासि, से चत्तारि तत्तो वोच्छिणा, दसमस्स य दो पच्छिमाणि वत्थूणि वोच्छिण्णाणि। 2. वही, पृ. 187,उवरिल्लाणि चत्तारि पुव्वाणि पदाहिमा अण्णस्स देन्नासि,से चत्तारि तत्तो वोच्छिणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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