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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 25 नहीं कहते हैं।' गणधर उस मातृकापद से द्वादशांगी की रचना करते हैं। अर्थ के कर्ता तीर्थंकर एवं सूत्र के कर्ता गणधर होते हैं। इसका तात्पर्य हुआ अर्थागम के कर्ता तीर्थंकर एवं सूत्रागम के कर्ता गणधर हैं। अर्थागम के उपदेष्टा होने से तीर्थंकर आगमों के आदिस्रोत हैं, उनके द्वारा प्रवाहित ज्ञान-गंगा गणधरों के माध्यम से आचार्य परम्परा के द्वारा प्रवर्तित होती हुई हमारे पास पहुंची है।' जैन परम्परा के अनुसार सभी काल में होने वाले तीर्थकर द्वादशांगी का उपदेश देते हैं अत: प्रवाह रूप से द्वादशांगी अनादि हैं। कोई भी ऐसा समय नहीं था जिस समय द्वादशांगी नहीं थी। यह जैन परम्परा की मान्यता है। जैन दर्शन के अनुसार शब्द अनित्य है। द्वादशांगी शब्द निबद्ध है, अत: द्वादशांगी नित्य कैसे हो सकती है ? कोई भी भाषा नित्य नहीं होती, अत: भाषा में लिखा हुआ कोई भी ग्रन्थ नित्य नहीं हो सकता। द्वादशांगी नित्य है, इसका तात्पर्य है कि द्वादशांगी में प्रतिपादित तत्त्व नित्य है। उसका भाषात्मक स्वरूप नित्य नहीं है। यथापंचास्तिकाय नित्य है। आत्म-तत्त्व नित्य है। उसके लिए आत्मा, चैतन्य, चेतना आदि प्रयुक्त होने वाले शब्द नित्य नहीं हैं।' वर्तमान में भगवान महावीर का शासन चल रहा है। उनके ग्यारह गणधर थे। इन्द्रभूति गौतमने तीन निषद्या में चौदह पूर्वो को ग्रहण कर लिया था। शेषगणधरों की निषद्या अनियत थी।' आवश्कचूर्णि में यह भी उल्लेख है कि पन्द्रह निषद्या में गणधरों ने द्वादशांगी का ग्रहण किया था। एक निषद्या से ग्यारह अंग एवं चौदह निषद्या से चौदह पूर्वो का प्रणयन किया। किंतु किसी गणधर विशेष का नाम उल्लिखित नहीं है। गणधर गौतम ने तीन निषद्या में चौदह पूर्वो का ग्रहण किया था। किंतु ग्यारह अंगों के लिए उन्होंने भगवान् से प्रश्न पूछे थे या नहीं? अथवा उन तीन निषद्या के आधार पर ही सम्पूर्ण द्वादशांगी का निर्माण कर लिया था? यह वर्णन प्राप्त नहीं है। 1. विशेषावश्यकभाष्य,गाथा (वृत्ति),1122,पृ. 2 54:गणधरलक्षणपुरुषापेक्षयासतीर्थंकर "उप्पज्नेइवा विगमेइ वा, धुवेइ वा" इति मातृकापदत्रयमात्ररूपं स्तोकमेव भाषते, न तु द्वादशांगानि। 2. वही, गाथा ।। 19, अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। 3. वही, गाथा 1081 4. नंदी, सूत्र 1 26, इच्चेइयंदुवालसंगंगणिपिङगंन कयाइनासी,न कयाइ न भवइ, न कयाइन भविस्सइ। भुविंच, भवइ य, भविस्सइच। 5. वही, 12 6 वें सूत्र पर प्रदत्त टिप्पण 6. आवश्यकनियुक्ति, (ले. हरिभद्रसूरि, बम्बई, वि.सं. 20 3 8) गाथा वृत्ति 135, पृ. 85 : तत्र गौतमस्वामिना निषद्यात्रयेण चतुर्दश पूर्वाणि गृहीतानि। प्रणिपत्य पृच्छा निषद्योच्यते। भगवांश्चाचष्टे-उप्पण्णेइ वा विगमेइ वा धुवेइवा । एता एव तिस्त्रो निषद्या:, आसामेव सकाशाद्गणभृताम् 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति प्रतीतिरुपजायते, अन्यथा सताऽयोगात्। ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो द्वादशांगमुपरचयन्ति । 7. आवश्यकचूर्णि, पृ. 370, सेसाणं अणियता णिसेज्जा। 8. वहीं, पृ. 337. जदा य गणहरा सव्वे पव्वजिता ताहे किर एगनिसेज्जाए एगारस अंगाणि चोद्दसहिं चोद्दसपुव्वाणि एवं ता भगवता अत्थो कहितो, ताहे भगवंतो एगपासे सुत्तं करेति,तं अखरेहिं पदेहिं वंजणेहिंसमं। 9. वही, पृ. 370.तंकहंगहितंगोयमसामिणा?तिविहं (तीहिं) निसेज्जाहिं चोद्दस पुव्वाणि उप्पादिताणि । निसेज्जाणाम पणिवतिउणजापुच्छा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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