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जैन आगम में दर्शन
प्रथम व्याख्या के अनुसार आप्त-पुरुष आगम है किंतु वर्तमान में आप्त-पुरुषों की अनुपस्थिति में उनका वचन तथा उस वचन से उत्पन्न होने वाले अर्थ ज्ञान को भी आगम मान लिया गया है।
__ जहां तक आप्ल-पुरुष की वाणी का सम्बन्ध है, परम्परा ने तीर्थंकर, गणधर, चतुर्दशपूर्वधारी, दशपूर्वधारी तथा प्रत्येक बुद्ध की वाणी को आगम माना है।' नियमसार के अनुसार आगम के वचन पूर्वापर दोष रहित होते हैं। स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार आप्त वे हैं जिनके राग-द्वेष तथा मोह का ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक क्षय हो चुका है।
जैन परम्परा वर्तमान में जिन्हें 'आगम' कहती है प्राचीन काल में उन्हें श्रुत या सम्यक् श्रुत कहा जाता था। इसी आधार पर 'श्रुतकेवली' शब्द प्रचलित हुआ। 'आगम-केवली' या 'सूत्र-केवली' ऐसा प्रयोग उपलब्ध नहीं होता है। आचार्य उमास्वाति ने श्रुत के पर्यायवाची शब्द के रूप में आगम शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने आप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन को श्रुत के पर्यायवाची शब्द के रूप में स्वीकार किया है।' वस्तुत: यहां श्रुत शब्द अत्यन्त व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन आगमों का उद्भव
जिनभद्र गणी के अनुसार तप, नियम एवं ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ होकर तीर्थंकर भव्य जीवों को संबोध प्रदान करने के लिए ज्ञानवृष्टि करते हैं । उस ज्ञानवृष्टि को बीज आदि बुद्धि से सम्पन्न गणधर ग्रहण करके उन विभिन्न प्रकार के ज्ञान कुसुमों से माला की रचना करते हैं, जिससे तीर्थंकर के वचनों को श्रोतासुखपूर्वक ग्रहण कर सके।' तीर्थंकर प्रज्ञा-सम्पन्न गणधरों की प्रज्ञा की अपेक्षा से संक्षेप में बोलते हैं, सर्वसाधारण भोग्य भाषा में नहीं बोलते हैं।' तीर्थंकर उत्पाद-व्यय एवं ध्रौव्य रूप तीन मातृकापद का सम्भाषण करते हैं, द्वादशांग को 1. (76) nafareffiti (Kapadia, H.R., A History of the canonical literature of the Jains, Surat, 1941
P. 14 पर उधृत) पृ. 3.a, अर्थतस्तीर्थंकरप्रणीतं सूत्रतो गणधरनिबद्धं चतुर्दशपूर्वधरोपनिबद्धं दशपूर्वधरोपनिबद्धं प्रत्येक-बुद्धोपनिबद्धं च। (ख) मूलाचार (ले. वट्टकेर, दिल्ली , 1992) गाथा 5/277
सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च । सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदसपुव्वकथिदं च ॥ 2. नियमसार (ले. आचार्य कुन्दकुन्द, जयपुर 1984) गाथा 8,
तस्स मुहम्गदवयणं पुव्वापरदोसविरहियं सुद्धं। आगमिदि परिकहियं तेण दुकहिया हवं तच्चत्था ।। 3. स्याद्वादमञ्जरी (ले. आचार्य मल्लिषेण, अगास, 1979) पृ. 7,
आप्तिर्हि रागद्वेषमोहानामैकान्तिक आत्यन्तिकश्च क्षयः सा येषामस्ति ते खल्वाप्ताः। 4. नंदी (संपा. आचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1977) सूत्र 65 5. अभिधानचिंतामणि, (ले. हेमचन्द्राचार्य, वाराणसी, 1996) 1/3 4 ........श्रुतकेवलिनो हि षट् । 6. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, (ले. आचार्य उमास्वाति, अगास, 1 9 3 2) 1/20, श्रुतमाप्तवचनं आगम: उपदेश
ऐतिहमाम्नाय: प्रवचनं जिनवचनमित्यनर्थान्तरम्।। 7. विशेषावश्यकभाष्य I, (ले. जिनभद्रगणी, मुंबई, वि.सं. 2039) गाथा 1094, 1||1, 11 1 3 8. वही, गाथा 1118
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