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मूलस्रोत आगम साहित्य की रूपरेखा
जैन धर्म-दर्शन का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आगम का महत्त्व स्वत: सिद्ध है। ऐतिहासिक दृष्टि से जैनधर्म-दर्शन का प्राचीनतम रूप आगमों में ही उपलब्ध होता है। प्रामाणिकता की दृष्टि से ग्यारह अंग आगम ही स्वत: प्रमाण है, शेष आचार्यों की वाणी उससे सम्बादी होने पर ही प्रमाण मानी जाती है। आगम की परिभाषा 1. 'आङ्' उपसर्गपूर्वक भ्वादिगणीय 'गम्लु-गतौ' धातु से 'अच्' प्रत्यय करने पर
अथवा 2. इसी धातु से करण अर्थ में 'घ' प्रत्यय करने पर आगम शब्द निष्पन्न होता है।' जैन-परम्परा आगम शब्द की व्याख्या मुख्यत: तीन प्रकार से करती है1. स्वयं आप्त-पुरुष ही आगम है।' 2. अर्थ-ज्ञान जिससे हो वह आगम है' अथवा आप्त का वचन आगम है।'
3. आप्त-पुरुष की वाणी से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह आगम है।' 1. (क) शब्दकल्पद्रुम (संपा. राजा राधाकान्तदेव, वाराणसी, 1967) प्रथम भाग, पृ. 1 6 5
(ख) वाचस्पत्यम (संपा. श्री तारानाथ. वाराणसी, 1969) प्रथम भाग, पृ. 614 2. व्यवहारभाष्य (संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा, लाडनूं, 1996) गाथा 318 3. अपि च-अनुयोगद्वारटीका (ले. मलधारी हेमचन्द्र, पाटण, 1939) पृ. 202, आ-समन्तात् गम्यते ज्ञायते
जीवादय: पदार्था अनेनेति वा आगमः। आवश्यकचूर्णि (ले. जिनदासगणिमहत्तर, रतलाम, 1928) पृ. 16
णज्जति अत्था जेण सो आगमो 4. अनुयोगद्वारचूर्णि (ले. जिनदासगणिमहत्तर, रतलाम, 1928) पृष्ठ 16, अत्तस्स वा वयणं आगमो। उपर्युक्त
दोनों लक्षणों में आसवचन को द्रव्यश्रुत तथा अर्थज्ञान को भावश्रुत मानना चाहिए। द्रष्टव्य-भिक्षुन्यायकर्णिका (ले. आचार्य तुलसी, चूरू, 1970) 4/2 आप्तवचनम्-आगम: तत्तु उपचारात्। वस्तुवृत्त्या वर्णपदवाक्यात्मकं
वचनं पौद्गलिकत्वाद् द्रव्यश्रुतं अर्थज्ञानात्मकस्य भावश्रुतस्य साधनं भवति। 5. प्रमाणनयतत्त्वालोक (ले. वादिदेवसूरि, उज्जैन, वि.सं. 1989) 4/| आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागम:
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