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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 51 दार्शनिक तथ्य भगवती में अनेक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक तथ्यों का प्रतिपादन हुआ है। इसमें जैन दर्शन की अनेक प्राचीन मौलिक अवधारणाओं का उल्लेख प्राप्त है। जिनमें कुछेक का वर्णन प्रस्तुत है। व्याख्याप्रज्ञप्ति की तत्त्व विवेचना का प्रारम्भ चलमाणे चलित से होता है। भगवान् महावीर के दर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त है-'चलमाणे चलिए' 'कडेमाणे कडं' चलमान चलित है, क्रियमाण कृत है। क्रियमाणकृत एवं चलमान चलित का सिद्धान्त प्रथमतया अवलोकन करने से विरोधी प्रतीत होता है किन्तु ज्योंहि अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग किया जाता है, विरोध विलीन हो जाता है। यथार्थ उभरकर सामने आ जाता है। अनेकान्त भगवान् महावीर की मुख्य दृष्टि रही है। तत्त्व प्रतिपादन में इस दृष्टि का महत्त्वपूर्ण उपयोग है। एकान्त दृष्टि से चलमान-चलित में विरोध परिलक्षित होता है। एकान्त दृष्टि से अवलोकन करने से ही जमालि इसके रहस्य को पकड़ नहीं सका और भगवान महावीर की शासना से विलग हो गया। अनेकान्त की दृष्टि सेचलमान और चलित-दोनों एकक्षण में होते हैं। 'चलमाणेचलिए' इस सिद्धान्त की व्याख्या ऋजुसूत्रनय से होती है। ऋजुसूत्रनय के अनुसार जो चलमान है वह चलित ही है, जो क्रियमाण है वह कृत ही है। इसके अनुसार उत्पत्तिकाल और निष्ठाकाल अलगअलग नहीं है।' जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण अवधारणा है--पंचास्तिकाय । विश्व-विद्या के क्षेत्र में अस्तिकाय की अवधारणा जैन दर्शन की मौलिक है। लोक स्वरूप की व्याख्या में प्रस्तुत सूत्र में कहा गया 'पंचत्थिकाया एस णं एवतिए लोए त्ति' लोक पंचास्तिकायमय है।' सृष्टिविद्या के आलोक में पुद्गल की विस्रसा परिणति, मिश्र परिणति एवं प्रयोग परिणति का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है।' कर्मविद्या के संदर्भ में अल्पवेदना-महानिर्जरा, महावेदना-अल्पनिर्जरा, अल्पवेदनाअल्प निर्जरा, एवं महावेदना-महानिर्जरा के सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रस्तुत सूत्र में है। जीव पर कर्मों का आवेष्टन एवं परिवेष्टन है। कर्म एवं जीव के सम्बन्ध में यह प्रयोग नई दृष्टि प्रदान करता है। जीव और अजीव दोनों में अपना-अपना 'स्नेह' होता है। उसके कारण इनका परस्पर सम्बन्ध होता है। 'अण्णमण्णसिणेह पडिबद्धा' का उल्लेख एक नई अवधारणा को प्रस्तुत करता है। 1. अंगसुत्ताणि 2. (भगवई) (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, वि.सं. 2031)1/11 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 13/55 3. वही, 8/1 4. वही, 6/15-16 5. वही, 8/484 6. वही, 1/312 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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