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________________ 52 जैन आगम में दर्शन रचना शैली भगवती की रचना शैली भी विशिष्ट प्रकार की है। इसकी शैली पर विमर्श करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ जी ने लिखा है कि- "प्रस्तुत आगम में 3 6 हजार प्रश्नों का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि इसकी रचना प्रश्नोत्तर की शैली में की गई थी। नंदी के चूर्णिकार ने बतलाया है कि गौतम आदि के द्वारा पूछे गए प्रश्नों तथा अपृष्ट प्रश्नों का भी भगवान् महावीर ने व्याकरण किया था। वर्तमान आकार में आज भी यह प्रश्नोत्तर शैली का आगम है। प्रश्न की भाषा संक्षिप्त है ओर उनके उत्तर की भाषा भी संक्षिप्त है। ‘से नूणं भंते'-इस भाषा में प्रश्न का और 'हंता गोयमा' इस भाषा में उत्तर का आरम्भ होता है से नूणं भंते! चलमाणे चलिए। "हंता गोयमा! चलमाणे चलिए॥ प्रश्न और उत्तर की भाषा सहज सरल है। कहीं-कहीं विषय की दृष्टि के अनुसार उत्तर बहुत विस्तार से दिए गए हैं। कहीं-कहीं प्रश्न विस्तृत है और उत्तर संक्षिप्त, इसलिए प्रतिप्रश्न भी मिलता है। ‘से केणढेणं'- इस भाषा में प्रतिप्रश्न प्रारम्भ होता है और विषय का निगमन 'से तेणढेणं'- इस भाषा में होता है। भगवती की रचना की यह विशेषता भी है कि शतक के प्रारम्भ में संग्रहणी गाथा होती है। उसमें उस शतक के सभी उद्देशकों की सूची मिल जाती है। गद्य के मध्य भी संग्रहणी गाथाएं प्रचुरता से मिलती हैं।' रचनाकार और रचनाकाल स्थानांग आदि की तरह ही भगवती भी गणधर सुधर्मा प्रणीत भगवान महावीर की वाणी का संकलन रूप द्वादशांगी का पांचवा अंग है। वर्तमान में उपलब्ध प्रस्तुत ग्रन्थ देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की वाचना का है। विद्वानों का अभिमत है कि इसके बीस शतक प्राचीन हैं और अगले शतक परिवर्धित हैं। इस संदर्भ में और भी विमर्श अपेक्षित है। पाश्चात्य विद्वान् विंटरनित्ज़ के अनुसार भगवती का पन्द्रहवां शतक एक अलग प्रकरण के रूप में था बाद में इसको भगवती के साथ जोड़ दिया गया। उनके अनुसार सम्पूर्ण पांचवां अंग जिसमें धीरे-धीरे अनेक प्रकरण जोड़ दिए गए। भगवती पर कार्य करने वाले प्राय: सभी विद्वानों ने इसे एक काल की रचना स्वीकार नहीं किया है। कालक्रम से इसके साथ नवीन जुड़ता रहा है। भगवती के कालक्रम से कई स्तर बन सकते हैं ऐसी विद्वानों की अवधारणा है। इस संदर्भ में विशेष अन्वेषण की आवश्यकता है, जिससे कुछ नवीन तथ्य प्रकाश में आ सके। 1. भगवई खण्ड-1, भूमिका पृ. 22-23| 2. Winternitz, Maurice, History of Indian Literature, P.428, It would seem that this Book XV of the Bhagavati was orginally an independent text, and indeed the whole of the fifth Anga has the appearance of a mosaic, into which various texts were inserted little by little. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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