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जैन आगम में दर्शन
दर्शन के सिद्धान्त तो वर्तमान में भी तद्प उपलब्ध हैं जिस रूप में सूत्रकृतांग में वर्णित हुए हैं। आत्मषष्ठवाद को वृत्तिकार ने सांख्य तथा शैवाधिकारियों के नाम से प्रस्तुत किया है, किंतु वर्तमान में उपलब्ध उन दर्शनों के साहित्य में ऐसी अवधारणा प्राप्त नहीं है। सम्भवत: उस समय ऐसी अवधारणा रही हो। नैयायिक-वैशेषिक भी आत्मवादी रहे हैं किंतु उनकी आत्मा सम्बन्धी अवधारणा सूत्रकृतांग में उपलब्ध नहीं है। आधुनिक विद्वानों ने 'आत्मषष्ठवाद' को पकुधकात्यायन की विचारधारासेजोड़ने का प्रयत्न किया है यद्यपि निश्चय रूप में इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता।
उपर्युक्त विवेचन से जैन मान्य आत्मा का जो स्वरूप उभरकर सामने आता है वह इस प्रकार है
(1) आत्मा पंचभूतात्मक नहीं है उसका स्वतंत्र अस्तित्व है तथा वह चेतनस्वरूप है। (2) जगत् एकात्मक नहीं है। उसमें नानाजीव है। आत्मा एक ही नहीं है बल्कि अनेक हैं। (3) आत्मा शरीर से भिन्न है। उनका परलोक होता है। वे पुनर्जन्म धारण करती हैं। (4) आत्मा कर्ता है। (5) आत्मा परिणामी नित्य है। (6) आत्मा एकान्तक्षणिक नहीं है। (7) पंचस्कन्ध तथा चतुर्धातुरूप आत्मानहीं है उसका स्वतंत्र अस्तित्व है। वह सहेतुक
एवं अहेतुक उभयरूप है। अर्थात् वह द्रव्यपर्यायात्मक है। उसका पर्याय स्वरूप सहेतुक है तथा द्रव्य स्वरूप अहेतुक है। वृत्ति में प्रदत्त सहेतुक एवं अहेतुक की व्याख्या के निष्कर्ष रूप में ऐसा कहा जा सकता है।
सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने इन वादों के निराकरण के पश्चात् जैन सम्मत आत्मा का उल्लेख करते हुए कहा है कि आत्मा परिणामी, ज्ञान का आधार, भवान्तरयायी, भूतों से भिन्न, शरीर से भिन्न एवं अभिन्न हैं।'
बौद्ध दर्शन ने आत्मा की सहेतुकता एवं अहेतुकता दोनों का ही निराकरण किया है।' जैन ने आत्मा को भिन्न-भिन्न अपेक्षा से सहेतुक एवं अहेतुक उभय प्रकार की माना है। नारक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव रूप में जन्म के उपादानभूतकर्म के द्वारा आत्मा उन-उन पर्यायों को धारण करती है अत: सहेतुक है। नित्य होने के कारण आत्मस्वरूप की प्रच्युति नहीं होती अत: वह अहेतुक भी है।' 1. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 19 2 वही, पृ. 19, एवं च सत्यात्मा परिणामी ज्ञानाधारो भवान्तरयायी भूतेभ्यः कथंचिदन्य एव शरीरेण
सहान्योन्यानवेधादनन्योऽपि ।
सूयगडो, 1/1/17 4. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 19
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