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आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन
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नियतिवाद की अवधारणा प्रस्तुति से पूर्व उसकी भूमिका स्वरूपएक श्लोक सूत्रकृतांग में प्राप्त है।' उस श्लोक में प्रदत्त कुछ शब्द विमर्शनीय है। वृत्तिकार ने उस ओर ध्यान आकृष्ट किया भी है। श्लोक में आगत-उववण्णा, पुढो, जिया
वेदयंति सुहं दुक्खं
.....लुप्पंति ठाणओ । ये वाक्यांश जैन की आत्म-अवधारणा को प्रस्तुत कर रहे हैं तथा इतर दर्शनों का निराकरण भी करते हैं। 1. उववण्णा-इसका अर्थ है कि जीव युक्तियों से सिद्ध है। इस पद के द्वारा पंचभूतवादी
तथा तज्जीवतच्छरीरवादी मतों का अपाकरण किया है। पुढो-जीव शरीर की दृष्टि से या नरक आदि भवों की उत्पत्ति की दृष्टि से पृथक्
पृथक् है। इससे आत्माद्वैतवाद का निरसन होता है। 3. जिया जीव। इससे पंच स्कन्ध से अतिरिक्त जीव का अभाव मानने वाले बौद्धों
का निरसन किया गया है। 4. वेदयन्ति सुहं दुक्खं प्रत्येक जीव सुख-दु:ख का अनुभव करता है। इससे आत्मा
के अकर्तृत्व का निरसन किया गया है। अकर्ता और अविकारी आत्मा में सुख
दु:ख का अनुभव नहीं होता। 5. अदुवा लुप्पंति ठाणओ-इस पद के द्वारा जीवों का एक भव से दूसरे भव में जाने की
स्वीकृति है। जीव को भवान्तरगामी स्वीकार करने से उसकी सर्वव्यापकता का
भी प्रकारान्तर से स्वत: निषेध हो जाता है, ऐसी संभावना भी की जा सकती है।
सूत्रकृतांग के विश्लेषण से प्राप्त आत्मस्वरूप उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों के लिए आधारभूत बना रहा। इन अवधारणाओं के इर्द-गिर्द वे अपनी आत्म-मीमांसा प्रस्तुत करते रहे हैं।
नियुक्तिकार ने सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन के उद्देशकों के अधिकार की चर्चा की है। प्रथम उद्देशक के छह अर्थाधिकार बताए हैं-पंचभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद एवं अफलवाद।' नियुक्ति में अफलवाद का पृथक् उल्लेख है। क्रम के अनुसार इसका सम्बन्ध बौद्धदर्शन के सिद्धान्त से जुड़ जाता है किंतु वृत्तिकार ने पंचभूतवाद से लेकर आत्मषष्ठवाद तक के सारे ही वादों को अफलवाद कहा है। 1. सूयगडो, 1/1/28 2. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 20 3. सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथा, 29,महपंचभूत एकप्पए य तज्जीवतस्सरीरीय।
तध य अकारगवादी आतच्छट्ठो अफलावादी ।। 4. सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 19.........पंचभूतात्माद्वैततज्जीवतच्छरीराकारकात्मषष्ठक्षणिकपंचस्कन्धवादिनामफलवा
दित्वं वक्तुकाम: सूत्रकार:..... ।
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