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जैन आगम में दर्शन
अनेकान्त और वस्तुवाद
जैन प्रमाण मीमांसा में, जैसा कि हमने ऊपर कहा अनेकान्तवाद और नयवाद का विशेष स्थान है। जो दर्शन अनेकान्त और नयकीमूलभूत सापेक्षता को स्वीकार नहीं करते, वेदोनोंवेदान्त और बौद्ध-प्रत्ययवादी दर्शन हैं। शेष सभी वस्तुवादी दर्शन किसी-न-किसी रूप में पूर्णत: या अंशत: अनेकान्त को स्वीकार करते हैं। उदाहरणत: सांख्य वस्तुवादी है वह पुरुष को तो नित्य कूटस्थ मानता है किंतु प्रकृति को परिणामी नित्य मानने के कारण अंशत: प्रकारान्तर से अनेकान्त को स्वीकार कर लेता है।' पूर्वमीमांसा तो नामत: भी अनेकान्त को स्वीकृति प्रदान करता है। निष्कर्ष यह है कि अनेकान्त और वस्तुवाद का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। इसलिए अनेकान्तवादी जैनदर्शन वस्तुवादी भी है। इतना अवश्य है कि वस्तुवादी दर्शनों में भी जैनदर्शन ने अनेकान्त का जैसा सर्वांगीण एवं व्यवस्थित प्रयोग किया, वैसा दूसरे दर्शनों ने नहीं किया। जैन दर्शन का द्वैतवाद
वस्तुवादी होने के साथ-साथ जैनदर्शन द्वैतवादी भी है। उसके अनुसार लोक में जो कुछ है वह सब द्विपदावतार है। विश्व के मूल में चेतन और अचेतन ये दो तत्त्व हैं, अन्य सभी प्रमेय इन दो तत्त्वों के ही अवान्तर भेद हैं। वे दो तत्त्व परस्पर विपरीत धर्मों से युक्त हैं। यथा1. सांख्यकारिका (ले. ईश्वरकृष्ण, वाराणसी, 1990), श्लोक ।।
श्लोकवार्तिक (संपा. द्वारिकादास शास्त्री, वाराणसी, 1978), वनवाद, श्लोक 80 'हहानैकान्तिकं वस्त्वित्येवं ज्ञानं सुनिश्चितम्' मीमांसादर्शन स्पष्ट रूप से वस्तुको उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मक स्वीकार करता है। उसकी सिद्धि में प्राय: वैसा ही उदाहरण भी प्रस्तुत करता है, जैसा जैन आचार्य प्रस्तुत करते हैं। श्लोकवार्तिक, वनवाद, श्लोक 21-22 वर्धमानकभंगेच रुचक: क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिन: शोक: प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।। हेमार्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्। नोत्पादस्थितिभंगानामभावे स्यान्मतित्रयम्॥ तुलनीय आप्तमीमांसा (ले. आचार्य सम्मन्तभद्र, वीर नि.सं. 2501, वाराणसी) श्लोक 59 घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्।। 3. ठाणं 2/1, जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं। 4. (क) वही, 2/1,जीवच्चेव अजीवच्चेव। (ख) TheNewEncyclopaedia BritannicaVol.6,P.473,Jainmetaphysicsisadualistic system
dividing the Universe into two ultimate and independent categories soul or living substance (Jiva), which permeates natural forces such as wind and fire as well as plants, animals, and human beings, and nonsoul or inanimate substance (ajiva) which includes
space, time and matter. 5. ठाणं, 2/1
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