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कर्ममीमांसा
नहीं है। आत्मा त्रैकालिक है । साक्षात्कार के अभाव में यह मात्र श्रद्धागम्य है । जाति स्मृति होने पर यह श्रद्धा का विषय नहीं रहता, अनुभूत सत्य बन जाता है । पूर्वजन्म की श्रृंखला को देखकर व्यक्ति के मन में अध्यात्म के प्रति सहज ही आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। उसका आचार-व्यवहार सहज एवं संतुलित बन जाता है ।
मृत्यु के पश्चात् किसी भी योनि में जन्म
पुनर्जन्म के सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि मनुष्य मृत्यु के पश्चात् फिर मनुष्य भी हो सकता है तथा नरक, तिर्यञ्च या देव किसी भी गति में उत्पन्न भी हो सकता है । वैसे ही तिर्यञ्च गति के जीव पुनः तिर्यञ्च गति में अथवा देव, नरक मनुष्य गति में पैदा हो सकते हैं। नारक जीव मरकर मनुष्य या तिर्यञ्च गति में पैदा होते हैं वे नरक गति से सीधे देवगति में नहीं जा सकते एवं नरक से नरक में भी पैदा नहीं हो सकते। उसी प्रकार देव दवेगति से च्युत होकर मनुष्य या तिर्यञ्च बनते हैं । पुन: देव से देव नहीं बन सकते तथा नरक में भी नहीं जाते, ऐसी जैनदर्शन की मान्यता है ।
भगवती सूत्र में ऐसे अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं । शालवृक्ष की चर्चा के प्रसंग में कहा गया शालवृक्ष यहां से नष्ट होकर पुन: शालवृक्ष के रूप में राजगृह में उत्पन्न होगा, वहां से च्युत होकर महाविदेह में उत्पन्न होकर सब दुःखों को नष्ट करेगा । '
उसी प्रकार कार्तिक सेठ के प्रसंग में कहा गया है कि कार्तिक सेठ मरकर दो सागरोपम स्थिति वाले शक्र के रूप में उत्पन्न हुआ ।' प्रस्तुत प्रथम उदाहरण में तिर्यञ्च से तिर्यञ्च गति तथा तिर्यञ्च से मनुष्य गति में गमन का उल्लेख है तथा दूसरे उदाहरण में मनुष्य गति से देव गति में जाने का उल्लेख है । ऐसे अन्य अनेक उदाहरण आगम में उपलब्ध हैं अतः जिनकी यह मान्यता है कि मनुष्य मरकर मनुष्य ही होता है, स्त्री मरकर स्त्री ही होती है जैनदर्शन इस मान्यता को स्वीकार नहीं करता ।
जैन आगमों में पुनर्जन्म की स्वत: सिद्ध सिद्धान्त के रूप में स्वीकृति है । आगमों में तर्क के द्वारा इस सिद्धान्त को स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया है। जैन आगमों में पुनर्जन्म से सम्बंधित सैंकड़ों सैंकड़ों नियमों का उल्लेख हुआ है। यद्यपि आगम उत्तरवर्ती मध्यकालीन जैन ग्रंथों में पुनर्जन्म को तर्क से सिद्ध करने के प्रयत्न किए गए हैं। जो तात्कालिक परिस्थितियों के अनुकूल ही है। आज परामनोवैज्ञानिक इस क्षेत्र में गम्भीर अन्वेषण कर रहे हैं।
ज्ञानदर्शन का भवान्तरगमन
आत्मा की त्रैकालिक सत्ता है । संसारावस्था में वह एक जन्म से दूसरे जन्म में अपने कर्मों के अनुसार परिभ्रमण करती है । आगम साहित्य में यह चर्चा भी उपलब्ध है कि आत्मा
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1. अंगसुतापि 2, (भगवई) 14 / 101-104
2. वही, 18 /54
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