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जैन आगम में दर्शन
स्वतंत्र सत्ता है। ये एक-दूसरे से पैदा नहीं होते हैं। इन दो तत्त्वों का ही विस्तार करके लोक को पंचास्तिकायमय माना गया है।' अथवा षड्द्रव्यात्मक भी कहा गया है। वस्तुत: ये पांच अस्तिकाय या छह द्रव्य जीव और अजीव के ही विस्तार हैं। सृष्टि के सम्बन्ध में जैन दर्शन को द्वितत्त्ववादी अथवा बहुतत्त्ववादी कहा जा सकता है।
जैन दर्शन में सृष्टि के पौर्वापर्य के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित किए गए हैं। भगवान् महावीर उनमें परस्पर अनानुपूर्वी बतलाकर इनमें पूर्व-पश्चात् क्रम का निषेध करते हैं। भगवान् महावीर के अनुसार सृष्टि चक्र पौर्वापर्य मुक्त अर्थात् अनादिकाल से चल रहा है। विश्व की व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों के द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के विविध जातीय संयोग से स्वत: निष्पन्न हैं। इसमें ईश्वर कर्तृत्व का अस्वीकार स्वत: स्फुट है। लोक का आकार
__ जैन दर्शन के अनुसार लोक (विश्व) का आकार भी स्थायी एवं अनादि है। रोह के लोकान्त-अलोकान्त, लोकान्त-अवकाशान्तर आदि से सम्बन्धित पौर्वापर्य की जिज्ञासा के संदर्भ में प्रस्तुत भगवान् महावीर के उत्तर से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।' जैन दर्शन में लोक-अलोक का आकार
भगवती सूत्र में द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक-इन चार प्रकार के लोक का कथन है। लोक के आकार का सम्बन्ध क्षेत्रलोक से है। अलोक के संस्थान को रेखांकित करते हुए कहा गया कि अलोक पोले गोले के समान है।' वह लोक के चारों ओर व्याप्त है। लोक उसमें समाया हुआ है। उपमा की भाषा में लोक को आगासथिग्गल
आकाशरूपी वस्त्र की एक कारी या थिगली कहा जा सकता है। अलोक की सीमा से सटा हुआ सातवां अवकाशान्तर है। उसके ऊपर सातवां तनुवात, फिर क्रमश: सातवां घनवात, सातवां घनोदधि और सातवीं पृथ्वी है। अवकाशान्तर, तनुवात, घनवात, घनोदधि और पृथ्वी ये सभी सात-सात हैं।'
अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 13/53,पंचत्थिकाया, एसणं एवतिए लोए त्ति पवुच्चइ। 2. जैन सिद्धान्त दीपिका, 1/8, षड्द्रव्यात्मको लोकः। 3. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 1/2 88 - 307
जैन सिद्धान्त दीपिका, 1/9,जीवपुद्गलयोर्विविधसंयोगै: स विविधरूपः। 5. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई), 1/296-298 _वही, 11/90, कतिविहे णं भंते! लोए पण्णत्ते? गोयमा! चउब्विहेलोए पण्णत्ते, तं जहा-दव्वलोए, खेत्तलोए,
काललोए, भावलोए।
वही, 11/90, अलोएणं भंते! किं संठिए पण्णते? गोयमा! झुसिरगोलसंठिए पण्णत्ते। 8. उवंगसुत्ताणि 4 (खण्ड-2) (पण्णवणा) (संपा.युवाचार्य महाप्रज्ञ,लाडनूं, 1989)15/153,आगासथिग्गले
णंभंते! किणा फुडे? कइहिं वा काएहिं फुडे? 9. ठाणं,7/14-22
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