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________________ तत्त्वमीमांसा 91 आचार्य महाप्रज्ञ ने इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करते हुए लिखा है कि "अवकाशान्तर -आकाश लोक और अलोक दोनों में विद्यमान है। लोक में सात अवकाशान्तर माने गए हैं। भगवती में आकाश के स्थान पर 'अवकाशान्तर' शब्द का प्रयोग मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र में अवकाशान्तर के स्थान पर आकाश शब्द का प्रयोग मिलता है। प्रत्येक पदार्थ में अवकाश होता है। परमाणु भी अवकाशशून्य नहीं है। अवकाशान्तर का यह सिद्धान्त आधुनिक विज्ञान द्वारा समर्थित है। परमाणु के दो भाग हैं-इलेक्ट्रोन और प्रोट्रोन। इन दोनों के बीच एक अवकाश विद्यमान रहता है। दुनिया के समस्त पदार्थों में से यदि अवकाश को निकाल लिया जाए तो उसकी ठोसता आंवले के आकार से बृहत् नहीं होती।"। लोक सुप्रतिष्ठक आकार वाला है। तीन शरावों में से एक शराव ओंधा, दूसरा सीधा और तीसरा उसके ऊपर ओंधा रखने से जो आकार बनता है, उसे सुप्रतिष्ठक संस्थान या त्रिशरावसंपुट संस्थान कहा जाता है। लोक नीचे विस्तृत है, मध्य में संकरा और ऊपर विशाल है। क्षेत्रलोक तीन भागों में विभक्त है-ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और मध्य लोक । भगवती में इन तीनों प्रकार के क्षेत्रलोक का विस्तार से वर्णन भी उपलब्ध है। जैसा कि हम पहले वर्णन कर चुके हैं कि लोक चार प्रकार का है-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक। द्रव्यलोक एक और सांत है। द्रव्यलोक पंचास्तिकायमय एक है, इसलिए सांत है।' लोक की परिधि असंख्य योजन कोडाकोड़ी की है, इसलिए क्षेत्रलोक भी सांत है। लोक पहले था, वर्तमान में है और भविष्य में सदा रहेगा, इसलिए काललोक अनन्त है।' लोक में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान के पर्यव अनन्त हैं तथा बादर स्कन्धों की गुरु-लघु पर्यायें, सूक्ष्म स्कन्धों और अमूर्त द्रव्यों की अगुरु-लघु पर्यायें अनन्त हैं, इसलिए भाव-लोक अनन्त हैं।' 1. भगवई (खण्ड ।) पृ. 135 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 11/98,लोए णं भंते! किंसठिए पण्णत्ते? गोयमा! सुपइट्ठगसंठिए पण्णत्ते, तं जहा-हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्तं. उप्पिं विसाले.......। 3. वही, 11/98 4. वही, 11/91,खेत्तलोएएभंते! कतिविहेपण्णत्ते ? गोयमा! तिविहेपण्णत्ते,तंजहा-अहेलोयखेत्तलोए, तिरियलोय खेत्तालोए, उड्डलोय खेत्तलोए। 5. वही, 11/92-97 6. वही, 2/45.दव्वओणं एगेलोए सअंते। महाप्रज्ञ. आचार्य, जैन दर्शन मनन और मीमांसा, (चूरू,1995) पृ. 218 8. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/45, ............अत्थि पुण से अंते। 9. वही, 2/45 10. वही, 2/45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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