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________________ 92 जैन आगम में दर्शन इन्द्रिय का विषय बनने की क्षमता मात्र पुद्गल में है। वही मूर्त्त द्रव्य है। वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्शये पुद्गल के धर्म हैं। ये पुद्गल द्रव्य के सहभावी धर्म हैं। इनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। उस परिवर्तन के आधार पर लोक विविध प्रकार का परिलक्षित होता है। लोक की दृश्यता पुद्गल के आधार पर ही है जो दिखाई देता है वह लोक है। जे लोक्कइ से लोए।' लोक के चार प्रकारों में भावलोक पर्याय रूप है अतः वह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। नयचक्र में स्वभाव एवं विभाव इन दो प्रकार की पर्यायों का उल्लेख है। जीव एवं पुद्गल के दोनों प्रकार की पर्याय होती है तथा अन्य द्रव्यों के मात्र स्वभाव पर्याय होती है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये पुद्गल के स्वभाव पर्यव हैं। एक परमाणु या स्कन्ध एक गुण काले रंग वाला यावत् अनन्तगुण काले रंग वाला हो जाता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श में भी स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। गुरु-लघुपर्यव पुद्गल और पुद्गलयुक्त जीव में होता है। इसका सम्बन्ध स्पर्श से है। अगुरुलघु पर्यव एक विशेष गुण या शक्ति है। इस शक्ति से द्रव्य का द्रव्यत्व बना रहता है। चेतन अचेतन नहीं होता और अचेतन चेतन नहीं होता, इस नियम का आधार अगुरुलघुपर्यव ही है। इसी शक्ति के कारण द्रव्य के गुणों में प्रतिसमय षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि होती रहती है। इस शक्ति को सूक्ष्म, वाणी से अगोचर, प्रतिक्षण वर्तमान और आगम प्रमाण से स्वीकरणीय बतलाया गया है।' द्रव्यानुयोगतर्कणा में द्रव्य के दस सामान्य धर्म बतलाए हैं उनमें एक अगुरुलघु है। उसको सूक्ष्म एवं वाणी का अगोचर माना गया है। पदार्थ दो प्रकार के होते हैं-भारयुक्त और भारहीन। भार का सम्बन्ध स्पर्श से है। वह पुद्गल द्रव्य का एक गुण है। शेष सब द्रव्य भारहीन अगुरुलघु होते हैं। पुद्गल द्रव्य भारयुक्त एवं भारहीन दोनों प्रकार का होता है। चतु:स्पर्शी तक के पुद्गल स्कन्ध भारहीन तथा अष्टस्पर्शी भारयुक्त होते हैं। जैन दार्शनिक साहित्य में अगुरुलघु पर्यव, अगुरुलघु सामान्य गुण - इनका उल्लेख है। शब्द एक जैसे होने पर भी तात्पर्य में विभेद परिलक्षित है। लोक एवं अलोक के परिमाण के संदर्भ में भी भगवती में विस्तार से वर्णन हुआ है।' 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई), 5/255 2. नयचक्र, (ले. माइल्लधवल, नई दिल्ली, 1971) गाथा 18, सब्भावं खु विहावं दव्वाणं पज्जयं जिणुद्दिटुं। सव्वेसिंच सहावं, विब्भावं जीवपोग्गलाणं च ॥ 3. भगवई (खण्ड।) पृ. 22 3-224 4. द्रव्यानुयोगतर्कणा (ले. कवि भोज, अगास, 1977) 11/4, अगुरुलघुता सूक्ष्मा वाग्गोचरविवर्जिता। 5. भगवई (खण्ड-1), पृष्ठ 174, (अगुरुलघु चउफासो अरूविदव्वा य होति नायव्वा । सेसा उ अट्ठफासा गुरुलहुया निच्छयणयस्स। गुरुलघुद्रव्यं रूपि, अगुरुलघुद्रव्यं त्वरूपि रूपि चेति।) 6. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई)11/109-110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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