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आत्ममीमांसा
विकोच होता रहता है। कार्मण शरीर युक्त आत्मा में संकोच - विकोच होता है। छोटे-बड़े सभी प्राणियों में जीव एक जैसा ही होता है। हाथी एवं चींटी के शरीर में अन्तर है किंतु उनमें जीव समान ही है ।' संसारावस्था में जीव को जैसा शरीर प्राप्त होता है वह उसके अनुसार ही अपना संकोच - विस्तार कर लेता है । भगवती में इसको दीपक के उदाहरण से समझाया गया है । दीपक को बड़े कमरे में रखेगें तो उसका प्रकाश उसमें फैल जाएगा । ढक्कन आदि छोटे स्थान में रखेंगे तो वह उतने ही प्रदेश को प्रकाशित करेगा। वैसे ही जीव को जैसा शरीर प्राप्त होगा वह उतने में ही अपना फैलाव कर सकेगा ।' भगवती के उपर्युक्त वर्णन से भी आत्मा की देहपरिमितता सिद्ध होती है ।
नयचक्र में भी समुद्घात के समय को छोड़कर आत्मा को शरीर प्रमाण ही कहा है ।' आत्मा के व्यापकत्व की स्थिति कादाचित्क घटना है मूलतः आत्मा शरीर-परिमाण ही है । जो दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं उनके मत में भी संसारी आत्मा के ज्ञान, सुखदु:ख इत्यादि गुण शरीर मर्यादित क्षेत्र में ही आत्मा को अनुभूत होते हैं, शरीर के बाह्य क्षेत्र में स्थित आत्म-प्रदेशों से उनका अनुभव नहीं होता । नैयायिक विद्वान् श्रीधर ने न्यायकंदली में कहा है
“सर्वगतत्वेऽप्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वम्, नान्यत्र,
शरीरस्योपभोगायतनत्वात्, अन्यथा तस्य वैयर्थ्यादिति ॥ "4
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4. स्याद्वादमंजरी, पृष्ठ- 68 पर उधृत
5. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, कारिका, 9
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इस प्रकार संसारी आत्मा को व्यापक माना जाए अथवा शरीर-व्यापी, संसार का भोग तो शरीर - व्यापी आत्मा ही करती है । जिस पदार्थ के गुण जहां उपलब्ध होते हैं वह पदार्थ वहीं होता है। आत्मा के ज्ञान आदि गुण शरीर में उपलब्ध हैं अत: आत्मा शरीर-व्यापी है, सर्वव्यापक नहीं है।' आगम उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा इस तथ्य को परिपुष्ट किया है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने एक स्वर से आत्मा के देह परिमाणत्व को स्वीकृत किया है।
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1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 7 / 158, हंता गोयमा ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे ।
2. वही, 7/159, . एवामेव गोयमा ! जीवे वि जं जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्धं बोंदिं निव्वत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपदेसेहिं स चेत्तीकरेइ खुड्डियं वा महालियं वा ।
3. नयचक्र, गाथा 1 :: 1, गुरुलघुदेहपमाणो अत्ता चत्ता हु सत्तसमुघायं ।
ववहारा णिच्छदो असंखदेसो हु से णेओ ।।
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यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवत् निष्प्रतिपक्षमेतत् । तथापि देहाद् बहिरात्मतत्त्वमतत्त्ववादोपहताः पठन्ति ॥
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