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________________ 188 जैन आगम में दर्शन जीव और पुद्गल के अन्योन्यानुप्रवेशको अग्निएवं अय-गोलक, क्षीर-नीर ' आदि के उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है किंतु भगवती सूत्र में कर्मबंध के सम्बंध में ‘आवेष्टन-परिवेष्टन' शब्द का प्रयोग भी हुआ है, जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। जीव-प्रदेशों को ज्ञानावरणीय आदि के कर्मपरमाणु आवेष्टित परिवेष्टित करते हैं। उनको बांध देते हैं। आवेष्टन-परिवेष्टन शब्द से यह द्योतित हो रहा है कि कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेशों में अनुप्रवेशन आवेष्टन-परिवेष्टनात्मक होता है। आत्मा पर कर्म का आवेष्टन-परिवेष्टन ___भगवती में एक प्रश्न यह भी उपस्थित किया गया है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्म के अविभागी-परिच्छेद (कर्मपरमाणु) कितनी संख्या से जीव के एक प्रदेश पर आवेष्टन एवं परिवेष्टन करते हैं। इस प्रश्न के समाधान में कहा गया-वे कर्म-परमाणु आवेष्टन-परिवेष्टन करते भी हैं और नहीं भी करते हैं, यदि करते हैं तो अनंत-कर्मपरमाणु एक साथ आवेष्टनपरिवेष्टन करते हैं। संख्येय या असंख्येय संख्या वाले कर्मवर्गणा के स्कन्ध कर्म रूप में परिणत नहीं हो सकते हैं। स्यात् आवेष्टन-परिवेष्टन होता है, स्यात् नहीं होता है। इस वक्तव्य के संदर्भ में यह मननीय है कि अमुक-अमुक गुणस्थानवी जीव के अमुक कर्म का आवेष्टनपरिवेष्टन होता है तथा अमुक प्रकार का नहीं होता अत: यहां आवेष्टन-परिवेष्टन होता भी है, नहीं भी होता है। इस वक्तव्य को रुचकप्रदेश की अवधारणा के आलोक में देखने से भी ज्ञात होता है कि जीव के प्रदेशों पर आवेष्टन एवं परिवेष्टन होता भी है और नहीं भी। कुछ जैनाचार्य जीव के मध्यवर्ती रुचकप्रदेशों को पूर्ण विशुद्ध मानते हैं। उन पर कर्म का आवरण नहीं हो सकता। नंदीसूत्र में भी एक वक्तव्य है कि अक्षर का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित रहता है। यदि वह भी आवृत्त हो जाये तो जीव भी अजीवत्व को प्राप्त हो जाता है। अक्षर का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित रहता है अर्थात् उतने आत्म प्रदेशों पर कर्म का आवरण नहीं होता, इससे लगता है कि आत्मा के कुछ प्रदेश सर्वथा कर्म-परमाणुओं से मुक्त होते होंगे । यद्यपि भगवती में यह भी कहा है कि मनुष्य को छोड़कर नियम से सब जीवों के आत्मप्रदेशों पर अनन्त कर्मपरमाणुओं का आवेष्टन-परिवेष्टन होता है। फिर भी यह अवधारणा एक नए तथ्य की ओर इंगित करती हुई प्रतीत होती है। 1. सन्मति तर्क 1/47 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/482 जइ आवेढिय-परिवेढिए नियमा अणंतेहिं। 3. वही, 8/482 सिय आवेढिय-परिवेढिए, सिय नो आवेढिय-परिवेढिए। जइ आवेढिय-परिवेढिए, नियमा अणंतेहिं । 4. नंदीसूत्र 71 अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुघाडिओ 5. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/483 नियम अणंतेहिं। जहा नेरइयस्स एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं. मणूसस्स जहा जीवस्स। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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