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जैन आगम में दर्शन
विषय-वस्तु
नंदी सूत्र के अनुसार ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञातों (दृष्टांतभूत व्यक्तियों) के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक-परलोक की ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, दीक्षा पर्याय का काल, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन अनशन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनरागमन, पुन: बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है।
धर्मकथा के दस वर्ग हैं। प्रत्येक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका में पांच-पांच सौ उप-आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक उप-आख्यायिकाएं में पांचपांच सौ आख्यायिकाएं-उपाख्यायिकाएं हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें साढे तीन करोड़ आख्यायिकाएं हैं।'
वर्तमान में प्राप्त प्रस्तुत आगम में दृष्टान्तों और कथाओं के माध्यम से अहिंसा, अस्वाद, श्रद्धा, इन्द्रिय-विजय आदि आध्यात्मिक तत्त्वों का अत्यन्त सरस शैली में निरूपण किया गया है। कथावस्तु के साथ वर्णन की भी विशेषता है। मुख्य उदाहरणों के साथ कुछ अवान्तर कथाएं भी उपलब्ध है। इस प्रकार नाना कथाओं, अवान्तर कथाओं, वर्णनों, प्रसंगों और शब्द प्रयोगों की दृष्टि से प्रस्तुत आगम बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसका विश्व के विभिन्न कथा-ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर कुछ नए तथ्य उपलब्ध हो सकते हैं।' उपासकदशा
श्रावकों की धर्माराधना का वर्णन करने वाला यह महत्त्तवपूर्ण आगम है। "प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का सातवां अंग है। इसमें दस उपासकों का जीवन वर्णित है। इसलिए इसका नाम 'उवासगदसाओ' है। श्रमण परम्परा में श्रमणों की उपासना करने वाले गृहस्थों को श्रमणोपासक या उपासक कहा गया है। भगवान् महावीर के अनेक उपासक थे। उनमें से दस मुख्य उपासकों का वर्णन करने वाले दस अध्ययन इसमें संकलित हैं। 'दशा' शब्द दस संख्या एवं अवस्था दोनों का सूचक है। उपासकदशा में उपासकों की कथाएं दस ही है अत: दस संख्यावाचक अर्थ उपयुक्त है। इसी प्रकार उपासकों की अवस्था का वर्णन करने के कारण अवस्थावाची अर्थ भी हो सकता है। उपासकदशा : आकार एवं विषय वस्तु
नंदी में प्रस्तुत आगम को एक श्रुतस्कन्ध वाला बताया है। इसके दस अध्ययन, दस उद्देशनकाल, दस समुद्देशनकाल तथा पदप्रमाण से संख्येय हजार पद है। वर्तमान में भी यह ग्रन्थ एक श्रुतस्कन्ध वाला है तथा इसके दस अध्ययन हैं। उद्देशक, समुद्देशक का उल्लेख उपलब्ध नहीं है।
1. नंदी, सूत्र 86 2. अंगसुत्ताणि - 3, भूमिका पृ. 2 2
3. वही, पृ. 23 4. नंदी, सूत्र 87
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