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अस्तिकाय का स्वरूप
अस्तिकाय प्रदेशात्मक है ।' काल के प्रदेश नहीं होते अतः वह अस्तिकाय भी नहीं है।' गुण और विविध पर्याय युक्त जिनका अस्ति स्वभाव है। जिनसे तीनों लोक निष्पन्न हुए हैं । वे अस्तिकाय कहलाते हैं । वे अस्तिकाय त्रैकालिकभाव परिणत हैं एवं नित्य हैं । ' अस्तिकाय सत् स्वरूप हैं। वे लोक के कारणभूत हैं । उनका अस्तित्व नियत है । आकाश के एक क्षेत्र में सारे अस्तित्व अवगाहित होने पर भी उनका स्वरूप भिन्न-भिन्न रहता है । परस्पर एक-दूसरे में अनुप्रविष्ट होकर भी उनमें स्वरूप सांकर्य नहीं होता ।' आगमों में स्थान-स्थान पर पंचास्तिकाय का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है, जिसकी हम यहां संक्षिप्त चर्चा करेंगे।
यहां विशेष रूप से यह स्मरणीय है कि आगम में जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग बहुतायत में हुआ है। किंतु तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य में जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग प्राप्त नहीं है। आचार्य उमास्वाति ने धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल इनको अजीवकाय कहा है तथा भाष्य में इन्हें अस्तिकाय से भी अभिहित किया है।' जीव को द्रव्य कहा है।' किंतु अस्तिकाय नहीं कहा। इस समस्या को जब भगवती में विवेचित अस्तिकाय के संदर्भ में देखते हैं तो ऐसा लगता है कि भगवती सम्पूर्ण जीवों के समूह को अस्तिकाय कह रही है । तत्त्वार्थ उत्तरवर्ती ग्रंथ एक जीव को अस्तिकाय कह रहे हैं । तत्त्वार्थ का समय इस प्रथम से द्वितीय अवधारणा पर पहुंचने का संक्रान्तिकाल लग रहा है, जहां सूत्रकार जीव शब्द का प्रयोग तो कर रहा है किंतु जीवास्तिकाय का नहीं । जीव को द्रव्य तो आगमकाल में भी कहा गया है उत्तरकाल में भी यह स्वीकृत है। जीव को द्रव्य कहने में उमास्वाति को कोई कठिनाई नहीं हो रही है।
भगवती में अस्तिकाय की अवधारणा
गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा
'भंते! धर्मास्तिकाय के एक, दो, तीन आदि प्रदेशों को धर्मास्तिकाय कहा जा सकता
है ?'
जैन आगम में दर्शन
'गौतम! नहीं कहा जा सकता।'
1.
अंग सुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2 / 124 135
2.
जैन सिद्धान्त दीपिका, 1 / 2
3. पंचास्तिकाय, गाथा 5, जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सहपज्जएहिं विविहेहिं ।
ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलुकं ॥
4. वही, गाथा 6, ते चेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा ।
5. वही, गाथा 7
6.
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/1, अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः । वही, 5 / 2, द्रव्याणि जीवाश्च ।
7.
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