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________________ तत्त्वमीमांसा 101 'भंते! उन्हें धर्मास्तिकाय क्यों नहीं कहा जा सकता?' गौतम ! चक्र का खण्ड चक्र कहलाता है या पूरा चक्र चक्र कहलाता है? 'भंते! चक्र का खंड चक्र नहीं कहलाता, पूरा चक्र चक्र कहलाता है।' ऐसे ही छत्र, चर्मरत्न, दण्ड आदि के सम्बन्ध में महावीर और गौतम का संवाद होता है। निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं 'इसी प्रकार गौतम! धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। प्रतिपूर्ण प्रदेशों को ही धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है।' अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय के लिए भी यही नियम है। अस्तिकाय का लोक व्यापित्व पांच अस्तिकाय में धर्म, अधर्म एवं आकाश को संख्या की दृष्टि से एक कहा गया है। एक जीव के असंख्य प्रदेश होते हैं। जीव संख्या की दृष्टि से अनन्त है। प्रत्येक जीव को जीवास्तिकाय का प्रदेश मानने से जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश हो जाते हैं। भगवती में उन अनन्त जीवों के समुदय को जीवास्तिकाय कहा गया है। भगवती में पुद्गलास्तिकाय के भी अनन्त प्रदेश निर्दिष्ट हैं। जैन दर्शन के अनुसार पुद्गल के स्कन्ध एवं परमाणु ये दो विभाग हैं। परमाणुभी संख्या में अनन्त हैं एवं स्कन्ध भी अनन्त है। इनके समुदय कोपुद्गलास्तिकाय कहा गया है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय को स्कन्ध की अपेक्षा एक व्यक्तिक कहा गया है। ये सदैव एक स्कन्ध के रूप में ही रहते हैं, यद्यपि प्रदेश की दृष्टि से धर्म-अधर्म के असंख्य प्रदेश एवं आकाश के अनन्त प्रदेश स्वीकृत हैं। जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय को क्षेत्र की अपेक्षा लोक प्रमाण माना गया है।' इसी प्रकार धर्म-अधर्म द्रव्य भी लोक व्यापी हैं। जीव जीवास्तिकाय का एक देश हैं। प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशात्मक है। ठाणं में धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय लोकाकाश एवं एक जीव इन चारों को असंख्य प्रदेशात्मक बताया है। धर्म, अधर्म, लोकाकाश तो स्पष्ट रूप से लोक व्यापी द्रव्य हैं, केवली समुद्घात के चतुर्थ समय में जीव भी लोक व्यापी बन जाता है।' किन्तु यह नियम केवली-समुद्घात करने वाले जीवों पर ही लागू होता है। भगवती में 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/130 - 135 2.वही, 2/125-127 3. वही, 2/128, दव्वओणं जीवत्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं। 4.वही,2/129 5.वही,2/128-129 6.वही, 2/125-126 7. भगवई (खण्ड-1), पृष्ठ 412 उपयोगगुणो जीवास्तिकाय:.........तदंशभूतो जीवः। 8. ठाणं, 4/495 9. वही, 8/114, चउत्थे समए लोगं परेति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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