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________________ तत्त्वमीमांसा 99 अस्तिकाय में आगत अस्ति' यह त्रिकाल का बोधक निपात है। जिस प्रदेशसमूहका त्रैकालिक अस्तित्व है वह अस्तिकाय है।' तत्त्वार्थभाष्य में अस्तिकाय में काय शब्द का ग्रहण क्यों किया गया, इसके दो कारण बतलाए हैं, वे हैं 1. प्रदेश रूप अवयवों का बहुत्व दिखाने के लिए और 2. अद्धासमय (काल) का प्रतिषेध करने के लिए। अद्धासमय का निषेध इसके दो अर्थ हो सकते हैं-एक तो 1. काल के अस्तित्व का ही निषेध करना अथवा 2.काल के अस्तिकायत्व का निषेध करना। प्रस्तुत प्रसंग में काल के अस्तिकायत्व का ही निषेध अभिप्रेत है क्योंकि इसी अध्याय में लेखक ने काल के उपकार का उल्लेख किया है। यदि प्रस्तुत प्रसंग में काल के अस्तित्व का निषेध होता तो यह उल्लेख संभव ही नहीं था। यद्यपि लेखक ने काल को कुछ आचार्य द्रव्य कहते हैं, ऐसे सूत्र का निर्माण किया है। इससे परिलक्षित होता है उस समय काल को द्रव्य मानने के सम्बन्ध में भी दो अवधारणाएं थीं, एक काल को द्रव्य मानने के पक्ष में थी, दूसरी उसे द्रव्य भी नहीं मानती होगी। आगम में काल को जीव-अजीव की पर्याय भी माना गया है। संभवत: उमास्वाति इसी मान्यता के पक्षधर थे। यद्यपि काल को अस्तिकाय तो किसी ने भी नहीं माना है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य सिद्धसेनगणी ने अस्तिकाय पद की नवीन व्याख्या प्रस्तुत की है। उनके अनुसार काय शब्द उत्पाद एवं व्यय की ओर संकेत करता है तथा अस्ति शब्द ध्रुवता का वाचक है। इस प्रकार अस्तिकाय शब्द से वस्तु का त्रयात्मक स्वरूप अभिव्यजित हो रहा है। अस्तिकाय शब्द से यह ज्ञात होता है कि धर्म आदि पांचों द्रव्य नित्य तथा अस्तित्ववान् हैं तथा वे परिवर्तन के विषय भी बनते हैं। जैन का अस्तिकाय वेदान्त के ब्रह्म एवं सांख्य के पुरुष की तरह कूटस्थ नित्य भी नहीं है तथा बौद्ध के पर्याय की तरह सर्वथा क्षणिक भी नहीं है। अपितु 'उत्पादव्ययध्रुवता' युक्त वस्तु-सत्य है। 1. भगवई (खण्ड-1), पृ. 411, अस्तीत्ययं निपात: कालत्रयाभिधायी, ततोस्तीति-सन्ति, आसन भविष्यन्ति च ये कायाः प्रदेशराशयस्तेऽस्तिकायाइति।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/1, कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थं च । 3. वही, 5/22 4. वही, 5/38, कालश्चेत्येके। 5. ठाणं, 2/387-390 6. तत्त्वार्थाधिगमभाष्यवृत्ति, (ले. सिद्धसेनगणि, बम्बई, वि.सं. 1986) 5/1, पृ. 317, ध्रौव्यार्थ प्रतिपत्तयेऽस्तिशब्दप्रक्षेप:, .........कायग्रहणादापत्तिरुद्भवप्रलयात्मिका प्रतीयत इति.............। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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