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आचार मीमांसा
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प्रज्ञा का उदय करना साधक का लक्ष्य है। तपस्या के माध्यम से प्रज्ञा का उन्मेष होता है। तपस्या (धुत) साधना है, साध्य नहीं। 'धुत' साधना की पद्धति है। 'धुत' की उत्कृष्ट स्थिति महापरिज्ञा है। अन्तर्मन के मोह का विवेक करना महापरिज्ञा है। महापरिज्ञा महाधुत है, यह भी साधन है, साध्य नहीं, इसका पर्यवसान मोक्ष में होता है जो आचारांग के आठवें अध्ययन का विषय है। शस्त्र परिज्ञा से लेकर विमोक्ष पर्यन्त सम्पूर्ण साधना-पद्धति भगवान् महावीर के जीवन में फलित हुई जिसकासाक्ष्य आचारांगका उवहाण' अध्ययन हैजोअन्तिम अध्ययन है। आचारांग में 'धुत' की साधना का सांगोपांग वर्णन है किंतु इसके अतिरिक्त अन्य जैन साधना के ग्रन्थों में इसका वर्णन उपलब्ध नहीं है। यद्यपि साधना के विभिन्न प्रकारों का वर्णन अन्यत्र भी उपलब्ध है किंतु 'धुत' नाम से नहीं, ऐसा क्यों हुआ यह अन्वेषणीय है। ब्रह्मचर्य की साधना
अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ब्रह्मचर्य का एक अर्थ है-ब्रह्म में रमण । प्रस्तुत प्रसंग में ब्रह्मचर्य से हमारा अभिप्राय इन्द्रिय विषय विरति तथा मैथुन विरति से है। आचारांग में मैथुन के लिए ग्राम्यधर्म शब्द का प्रयोग हुआ है।' साधक जब इस 'ग्राम्यधर्म' (वासना) से पीड़ित हो जाता है, तब उस पीड़ा को कैसे दूर किया जाए? इसके उपायों का उल्लेख आगम साहित्य में उपलब्ध है।
काम-वासना का उदय दो प्रकार का होता है-सनिमित्तक और अनिमित्तक।जो कामवासना का उदय बाह्य वस्तुओं के कारण होता है, वह सनिमित्तक है। जो आन्तरिक कारणों से होता है, वह अनिमित्तक है।
सनिमित्तक काम-वासना का उदय तीन प्रकार का है1. शब्द श्रवण से होने वाला। 2. रूप दर्शन से होने वाला। 3. पूर्वभुक्त भोगों की स्मृति से होने वाला।
अनिमित्तक भी तीन प्रकार का है1. कर्म के उदय से होने वाला। 2. आहार के कारण होने वाला। 3. शरीर के कारण होने वाला।
स्थानांग में काम संज्ञा उत्पत्ति के चार कारण निर्दिष्ट हैं - 1. आयारो,5/78, ..........उब्बाहिज्जमाणे गामधम्मेहिं। 2. निशीथभाष्यचूर्णि, गाथा 516, सई वा सोऊणं, दळु सरितुंव पुव्वभुत्ताई।
सणिमित्तऽणिमित्तं पुण उदयाहारे सरीरे य॥ 3. ठाणं, 4/581,चउहिं ठाणेहिं मेहणसण्णा समुप्पज्नति,तं जहा-चितमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स कम्मस्स
उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं।
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