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________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 305 सर्वव्यापक रूप को लेकर ऋग्वेद का ही एक पूरा सूक्त पुरुष सूक्त के नाम से उपलब्ध होता है जहां यह कहा गया है कि एक यज्ञ में पुरुष ने अपने आपको होम दिया।' और उस पुरुष के ही विभिन्न अंगों से समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई।' सूत्रकृतांग में उल्लेख है कि कुछ ब्राह्मण और श्रमण अंडे से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं। ऋग्वेद में कहा गया है कि एक प्राणियों का स्वामी हिरण्यगर्भ सर्वप्रथम था, जिसने द्यौ और पृथिवी को धारण किया। हिरण्यगर्भकीव्याख्या करते हुए सायणाचार्य ने उसे हिरण्यमय अंडे का गर्भभूत प्रजापति बताया है। सायण की इस व्याख्या से सूत्रकृताङ्ग का वक्तव्य अनुमोदित होता है। देव एवं ब्रह्माकृत सृष्टि __देव-उप्त एवं ब्रह्म-उप्स सृष्टि का उल्लेख भी सूत्रकृतांग में है। कुछ व्यक्ति यह मानते हैं कि यह लोक देव द्वारा उस है, कुछ का मानना है यह लोक ब्रह्मा उस हैं ' अर्थात् देव अथवा ब्रह्मा के द्वारा इसका बीज वपन किया गया है। 'उत्त' शब्द के आगम के व्याख्याकारों ने तीन अर्थ किए--उस, गुप्त और पुत्र ।' 'उत्त' शब्द का संयोजन देव एवं ब्रह्मा दोनों के साथ किया गया। फलितार्थ में इनके तीन अर्थ हो जाते हैं ।. देव अथवा ब्रह्मा के द्वारा बीज वपन किया हुआ। 2. देव अथवा ब्रह्मा के द्वारा पालित। 3. देव अथवा ब्रह्मा के द्वारा उत्पादित । जैसे कृषक बीजों का वपन कर फसल उगाता है वैसे ही देवताओं ने बीज वपन कर इस संसार का सर्जन किया है। कुछ दार्शनिकों का मन्तव्य है कि ब्रह्मा जगत् का पितामह है। जगत् सृष्टि के आदि में वह अकेला था। उसने प्रजापतियों की सृष्टि की। उन्होंने फिर क्रमश: समस्त संसार का निर्माण किया।' 1. ऋग्वेद, 10/90/6 2. वही 10, 90/12 - 14 3. सूयगडो।/1/67 माहणा समणा एगे आह अंडकडे जगे। 4. ऋग्वेद 10/121/1 5. वही, 10/121/। पर सायण भाष्य-हिरण्यगर्भ: हिरण्यमयस्याण्डस्य गर्भभूत: प्रजापतिर्हिरण्यगर्भः। 6. सूयगडो, 1/1/64......देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्तेत्ति आवरे। 7. (क) सूत्रकृतांगचूर्णि, 41,देवउत्ते.......देवेहिं अयं लोगोकतो, उत्त इतिबीजवद्वपित: आदिसर्गे......देवगुत्तो देवै: पालित इत्यर्थः । देवपुत्तो वा देवैर्जनित इत्यर्थः । (ख) सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 28, देवेनोप्तो देवोप्तः, कर्षकणेव बीजवपनं कृत्वा निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थ: देवैर्वा गुप्तो-रक्षितो देवगुप्तो देवपुत्तो वा। 8. सूत्रकृतांग चूर्णि,पृ. 41, एवं बंभउत्ते वि तिण्णि विकप्पा भाणितव्वा-बंभउत: बंभगुत्त: बंभपुत्त इति वा। सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 28, तथाहि तेषामयमभ्युपगम:-ब्रह्मा जगत्पितामहः, स चैक एव जगदादावासीत् तेन स प्रजापतय: सृष्टा: तैश्च क्रमेणैतत्सकलं जगदिति । 9. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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