________________
आचार मीमांसा
269
सत्य देश, काल, व्यक्ति, परिवेश आदि की सीमाओं में आबद्ध नहीं है। तीर्थसिद्ध आदि पन्द्रह प्रकार के सिद्धों की अवधारणा इसी सत्य को निर्देशित कर रही है। आगम युग में यह सत्य अनेक स्थलों पर अभिव्यंजित है किन्तु दर्शन युग में इस सत्य की उन्मुक्तता के स्वर क्षीण पड़ जाते हैं।
सिद्धों में आत्मा का पूर्ण विकास हो चुका है, अत: आत्मिक विकास की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। किन्तु उनकी पूर्वावस्था को आधार बनाकर सिद्धों के पन्द्रह भेद किए जाते हैं। जो यहां विशेष मननीय है1. तीर्थसिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना के पश्चात् तीर्थ में दीक्षित होकर सिद्ध होते हैं,
जैसे ऋषभदेव के गणधर आदि। 2. अतीर्थसिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना के पहले सिद्ध होते हैं, जैसे मरुदेवी माता।
तीर्थंकर सिद्ध-जो तीर्थंकर के रूप में सिद्ध होते हैं, जैसे-ऋषभ आदि। 4. अतीर्थंकर सिद्ध-जो सामान्यकेवली के रूप में सिद्ध होते हैं। 5. स्वयंबुद्धसिद्ध-जो स्वयं बोधि प्राप्त कर सिद्ध होते हैं। 6. प्रत्येकबुद्धसिद्ध-जो किसी एक बाह्य निमित्त से प्रबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं। 7. बुद्धबोधितसिद्ध-जो आचार्य आदि के द्वारा बोधि प्राप्त कर सिद्ध होते हैं। 8. स्त्रीलिंगसिद्ध-जो स्त्री शरीर से सिद्ध होते हैं। 9. पुरुषलिंगसिद्ध-जो पुरुष शरीर से सिद्ध होते हैं। 10. नपुंसकलिङ्गसिद्ध-जो कृत नपुंसक शरीर से सिद्ध होते हैं। 11. स्वलिङ्गसिद्ध-जो जैन साधु के वेश में सिद्ध होते हैं। 12. अन्यलिङ्गसिद्ध-जो निर्ग्रन्थेतर भिक्षु के वेश में सिद्ध होते हैं। 13. गृहलिङ्गसिद्ध-जो गृहस्थ के वेश में सिद्ध होते हैं। 14. एकसिद्ध-जो एक समय में एक सिद्ध होता है। 15. अनेकसिद्ध-जो एक समय में दो से लेकर उत्कृष्टत: एक सौ आठ तक एक साथ
सिद्ध होते हैं।
जैन आगम की पन्द्रह प्रकार के सिद्धों की अवधारणा जैन दर्शन की व्यापकता का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। मुक्ति पर किसी जाति, वर्ण, लिंग, सम्प्रदाय का एकाधिकार नहीं है। श्रमणसंघ में दीक्षित हो या नहीं, विभिन्न अतिशय युक्त तीर्थंकर हो या सामान्य रूप में साधना का जीवन जीने वाला, स्त्री हो या पुरुष, गृहस्थ हो या तापस, प्रत्येक अवस्था में जीव पुरुषार्थ के द्वारा सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकता है। आन्तरकि निर्मलता को प्रधानता देने वाला यह सूत्र जैन दर्शन की विशाल दृष्टि का परिचायक है।
1. ठाणं, 1/214-228 2. वही, टिप्पण पृ. 29-30
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org