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आगम साहित्य की रूपरेखा
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प्रदत्त सूत्र वार्तमानिक समस्या को समाहित करने में सक्षम हैं। हिंसा एवं आतंक की समस्या का समाधान आचारांग में आगत अहिंसा के उच्च सिद्धान्त में सन्निहित है। रचना शैली
सूत्रकृतांगचूर्णि में प्रथम आचारांग को गद्य की कोटि में रखा है, किंतु दशवैकालिक चूर्णि में ब्रह्मचर्याध्ययन (आचारांग) को चौर्ण पद माना है। आचार्य हरिभद्र का भी यही अभिमत है। आचारांग की रचना गद्यशैली की नहीं है, इसलिए दशवकालिक चूर्णि का अभिमत संगत लगता है। नियुक्तिकार ने चौर्णपद की व्याख्या इस प्रकार की है- “जो अर्थ-बहुल, महार्थ, हेतु, निपात और उपसर्ग से गंभीर, बहुपाद, अव्यवच्छिन्न, गम और नय से विशुद्ध होता है। चौर्ण की परिभाषा में आया हुआ बहुपाद शब्द महत्त्वपूर्ण है। जिस रचना में कोई पाद नहीं होता वह गद्य और जिसमें गद्य भाग के साथ-साथ बहुत पाद होते हैं, वह चौर्ण पद है। आचारांग में सैकड़ों पाद हैं, इसलिए वह चौर्ण शैली की रचना है। आचारांग के 8वें अध्ययन के 7वें उद्देशक तक की रचना चौर्ण शैली में है और 8वां उद्देशक तथा 9वां अध्ययन पद्यात्मक है। आचारचूला के 15 अध्ययन मुख्यतया गद्यात्मक हैं, कहीं-कहीं पद्य या संग्रह गाथाएं प्राप्त हैं। 16वां अध्ययन पद्यात्मक है। आचारांग में गद्यभाग के साथ-साथ विपुल मात्रा में पद्य भाग है- इस रहस्य के उद्घाटन का श्रेय डॉ. शुबिंग को है। उन्होंने स्व-संपादित आचारांग के पद्य भाग का पृथक् अंकन किया है।' रचनाकार और रचना काल
जैन परम्परा के अनुसार अर्थागम के कर्तातीर्थंकर एवं सूत्रागमकेकर्तागणधर हैं। वर्तमान में उपलब्ध एकादश अंग गणधर सुधर्माप्रणीत माने जाते हैं अतः आचारांग सुधर्मा स्वामी की रचना है।
परम्परा से यह जाना जाता है कि आचारांग की रचना गणधर सुधर्मा स्वामी ने तीर्थप्रवर्तन के समय में ही की। विद्वानों ने आचारांग, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन को भाषाशास्त्रीय दृष्टिकोण एवं साहित्यिक दृष्टिकोण से प्राचीनतम माना है। डॉ. हर्मन जेकोबी इसकी तुलना ब्राह्मण सूत्रों की शैली से करते है। आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध दूसरे श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा निश्चित रूप से प्राचीन है। यह विंटरनित्ज आदि विद्वानों का मन्तव्य है।' 1. आचारांग भाष्यम, भूमिका पृ. 2 3 दशवैकालिकनियुक्ति, (ले. आचार्य भद्रबाहु, अहमदाबाद, 1973) गाथा
174,अत्थबहुलं महत्थं, हेउनिवाओवसग्गगंभीरं। बहुपायमवोच्छिन्नं गमणयसुद्धं च चुण्णपयं ।। 2. Jain Jagdish chandra, Life in Ancient India Depicted in Jaina Canon and Commentaries, (Delhi,
1984) P. 43 : The first book of the Ayarang and that of the Suyagdainga and Uttarajjhayana
contain the oldest part of the canon from linguistic and literary point of view. 3. Jacobi, Herman, The Sacred Books of the East, (Delhi, 1980) Vol. XXII, Introduction, Page 48 4. Winternitz, Maurice, History of Indian literature, P.419 : The first section, which makes a
very archaic impression, is most decidedly earlier than the second.....
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