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आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन
प्रकृति मूल है। उससे महत्-बुद्धि नामक तत्त्व उत्पन्न होता है । महत् से अहंकार, अहंकार से मन, दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां) और पांच तन्मत्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) उत्पन्न होती हैं। इन पांच तन्मात्राओं से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं ।' रूप तन्मात्रा से अग्नि, रस से जल, गन्ध से भूमि शब्द से आकाश तथा स्पर्श तन्मात्र से वायु नामक भूत पैदा होता है।' सांख्य के अनुसार यह सृष्टि क्रम है ।
इन चौबीस तत्त्वों में प्रकृति किसी से उत्पन्न नहीं होती । वह अनादि है । मूल प्रकृति अविकृति होती है । महत् अहंकार और पांच तन्मात्राएं - ये सात तत्त्व प्रकृति और विकृति दोनों होते हैं। इनसे अन्य तत्त्व उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये प्रकृति हैं और ये किसी-न-किसी अन्य तत्त्व से उत्पन्न होते हैं, इसलिए विकृति भी हैं। सोलह तत्त्व केवल विकृति हैं। पुरुष किसी को उत्पन्न नहीं करता इसलिए वह प्रकृति नहीं है वह किसी से उत्पन्न भी नहीं होता, इसलिए विकृति भी नहीं है ।' मूल प्रकृति एवं पुरुष ये दोनों अनादि तत्त्व हैं।' शेष तेईस तत्त्व प्रकृति के विकार हैं । यही प्रधानकृत सांख्य सृष्टि का स्वरूप है ।
सांख्य दर्शन ने चेतन एवं अचेतन दोनों तत्त्वों को स्वीकार करके भी सृष्टि का सम्पूर्ण भार अचेतन प्रकृति पर डाल दिया। पुरुष को अपना रूप दिखाने के लिए प्रकृति सृजन करती है । जैसे नर्तकी रंगस्थल स्थित पुरुषों को नृत्य दिखलाकर अपना कार्य समाप्त होने पर नृत्य से निवृत्त हो जाती है, इसी प्रकार प्रकृति भी महत्, अहंकार, तन्मात्रा, इन्द्रिय संघात, पंचभूत भाव से देव, मनुष्य, तिर्यक् योनियों में, सुख-दुःख मोहाकृति तथा शान्त, घोर, मूढावस्थायुक्त होकर अपना स्वरूप पुरुष को दिखाकर निवृत्त हो जाती है ।' पुरुष सर्वथा निर्लेप होता है । संसार, बंधन एवं मोक्ष सब प्रकृति के ही होता है।' सृष्टि निर्माण में सांख्य के अनुसार पुरुष का किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होता है ।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शनों की विस्तृत व्याख्या तद्-तद् आगम में प्राप्त उन उन अंशों के स्पष्टीकरण के समय की है। हमने उस व्याख्या का कहीं शब्दशः और कहीं अर्थतः संग्रहण प्रस्तुत अध्याय में बहुलता से किया है प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्येता की सुविधा के लिए प्राचीन ग्रन्थों के सन्दर्भ भी प्रस्तुत किए हैं।
1. सांख्यकारिका, 22, प्रकृतेर्महान्, ततोऽहङ्कारः तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्यः पंचभूतानि ॥ 2. षड्दर्शनसमुच्चय, श्लोक 40, रूपात्तेजो रसादापो गन्धाद् भूमि: स्वरान्नभः । स्पर्शाद्वायुस्तथैवं च पंचभ्यो भूतपंचकम् ॥ 3. सांख्यकारिका, श्लोक 3, मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः । ।
4. गीता, 13 / 19, प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । 5. सांख्यकारिका, श्लोक 59,
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रंगस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् । पुरुषस्य तथाऽऽत्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥ वही, श्लोक 62, तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् ।
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥
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