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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 79 4. निरुक्त कोश 5. श्रीभिक्षुआगम विषयकोश, भाग 1 6. वनस्पतिकोश 7. नियुक्तिपंचक 8. आवश्यक नियुक्ति (प्रथम भाग) 9. श्रीभिक्षुआगम विषयकोश के भाग 2 का कार्य चालू है। 10. जैन पारिभाषिक शब्दकोश का कार्य भी चालू है। आचार्यश्रीमहाप्रज्ञजीकेगम्भीर अध्ययन-चिंतन एवं अन्वेषणशैलीनेआगम-विश्लेषण के क्षेत्र में एक नवीन कीर्तिमान स्थापित किया है। उपर्युक्त आगम साहित्य का अनुसंधान के क्षेत्र में प्रचुर उपयोग हो रहा है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि जैन परम्परा के सामने बौद्ध परम्परा की तरह ही आर्षवाणी को सुरक्षित रखने का प्रश्न उपस्थित हुआ था। जिस प्रकार बौद्धों ने इसके लिए संगीति आयोजित की, उसी प्रकार जैनों ने भी वाचनाएं आयोजित की किंतु इसके बावजूद भी भगवान् महावीर की वाणी का बहुत बड़ा अंश लुप्त हो गया। बहुत समय तक तो जैन परम्परा ने लिखने का ही निषेध किया। किन्तु बाद में यह देखकर कि स्मृति के द्वारा इतने विपुलकाय साहित्य को सुरक्षित रखना सम्भव नहीं है अत: लिखने की अनुमति दे दी गई। आगमों को सूत्र कहा जाता है। सूत्र सदा व्याख्या सापेक्ष होते हैं। इसलिए जैन आचार्यों ने प्राचीनकाल से ही आगमों की विस्तृत व्याख्या नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि तथा टीका के रूप में की। वस्तु स्थिति यह है कि प्राचीन परम्परा को जानने के लिए और आगमों के दुर्बोध अंश को समझने के लिए व्याख्या साहित्य ही हमारा एकमात्र अवलम्बन है। आगम के इस व्याख्या साहित्य में आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ की संयुक्त देखरेख में जो व्याख्यासाहित्य निर्मित हुआ है। वह अधुनातन तो है ही उसमें प्राचीन व्याख्या साहित्य का नवनीत भी समाहित है। आगमों की ठीक समझ के लिए यह व्याख्या साहित्य ही हमारा मुख्य आधार बना है। लुप्त होने से जो साहित्य बच गया वह भी अपने शुद्ध रूप में हम तक नहीं आ सका। इसलिए मुद्रणकला के आने के बाद जब आगमों के सम्पादित रूप में प्रकाशित करने की समस्या आई तब शुद्ध पाठ निर्धारण की समस्या अत्यन्त विकट सिद्ध हुई। भारतीय जलवायु में कोई भी पाण्डुलिपि अधिक से अधिक एक हजार वर्ष तक ही सुरक्षित रह सकती है अत: बहुत प्राचीन पाण्डुलिपि मिलने का प्रश्न नहीं था। जो पाण्डुलिपियां प्राप्त हुईं, वे प्राचीनतम पाण्डुलिपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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