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आचार मीमांसा
सूत्र है - ज्ञानं प्रथमो धर्मः । ज्ञान के बिना आचार का निर्धारण नहीं हो सकता । ज्ञानी मनुष्य ही आचार और अनाचार का विवेक करता है तथा अनाचार को छोड़कर आचार का पालन करता है । सत्यासत्य का विवेक ज्ञान पर निर्भर करता है । सूत्रकृतांग में भी यही तथ्य प्रतिपादित हुआ है। पहले बंधन को जानो फिर उसको तोड़ो।' बंधन क्या है ? उसके हेतु क्या है? उसे तोड़ने के उपाय क्या है ? इन सबको जानने पर ही बंधन को तोड़ा जा सकता है। यह दृष्टि न केवल ज्ञानवाद है और न केवल आचारवाद है। यह दोनों का समन्वय है ।
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सार की खोज मनुष्य की मनीषा का चिरंतन प्रयत्न है । जिसमें पोषकशक्ति है, स्नेह है, सरसता है, मधुरता है वह सार है। दूध पोषक है। मनुष्य उससे संतुष्ट नहीं हुआ। उसने सार की खोज की और नवनीत मिल गया । छिलके में पोषक शक्ति है । मनुष्य उससे संतुष्ट नहीं हुआ । आम के सार को प्राप्त किया, मधुरता प्रत्यक्ष हो गई । ज्ञान विवेक शक्ति का उद्घाटक है किंतु मनुष्य इतने मात्र से संतुष्ट नहीं हुआ। वह ज्ञान के सार तत्त्व के अन्वेषण में लगा रहा। ज्ञान के सार की खोज में आचार हस्तगत हो गया । ज्ञान का सार आचार है ।' आचार के अभाव में ज्ञान अधूरा है। मार्क्स ने कहा -दर्शन आदमी को ज्ञान देता है पर बदलता नहीं, इसलिए ऐसा दर्शन चाहिये जो समाज को बदल सके । पश्चिमी दार्शनिकों ने तत्त्वज्ञान और आचार को विभक्त कर दिया अत: मार्क्स की यह टिप्पणी स्वाभाविक है । भगवान् महावीर ने कोरा दर्शन नहीं दिया अपितु जीवन में आचरित दर्शन प्रदान किया । ज्ञान प्रथम आवश्यकता है । जानने के बाद आचरण करना आवश्यक है ।
आचार का आधार : आत्मज्ञान
कोई भी क्रिया की जाती है तो एक प्रश्न उपस्थित होता है कि इस प्रकार की क्रिया क्यों की जा रही है ? इसका हेतु क्या है ? आधार क्या है ? आधार का निश्चय हुए बिना कोई आचार संहिता नहीं बन सकती । सबसे पहले आधार का अन्वेषण आवश्यक होता है। प्रायः सभी भारतीय दर्शनों के आचार का आधार आत्मा ही है । अनात्मवाद के आधार पर बनने वाली आचार संहिता एक प्रकार की होगी और आत्मवाद के आधार पर बनने वाली आचारसंहिता दूसरे प्रकार की होगी। जैन दर्शन की आचार संहिता का आधार आत्मा है । अतः आचार-निर्धारण से पूर्व आत्मा का अवबोध होना आवश्यक है। आचारांग का प्रारम्भ आत्मजिज्ञासा से ही होता है। एक प्रश्न हो सकता है - क्या आत्मा को जाना जा सकता है ? भगवान् महावीर इसका उत्तर हां में देते हैं। आत्मा को जाना जा सकता है। उसको जानने के तीन हेतुओं का उल्लेख आचारांग में है 4_
1. सूयगडो, 1/1/1, बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा ।
2. आवश्यक नियुक्ति, गाथा 87
3. आयारो, 1/1
4.
वही, 1/3, सेज्जं पुण जाणेज्जा-सहसम्मुइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा......।
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