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आगम साहित्य की रूपरेखा
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जैन आगमों का आधुनिक सम्पादन, अनुवाद एवं भाष्य
भारतीय परम्परा में प्रथम तो शास्त्रों को कण्ठस्थ करने की प्रथा रही है। दूसरे मुद्रण कला के आविष्कार के अनन्तर भी ग्रंथों को हस्तलिखित रूप में ही प्रयुक्त करने की प्रथा चालू रही। इस कारण जैनागम भी अधिक लोगों तक नहीं पहुंच पा रहे थे। सर्वप्रथम 1880 में राय धनपतिसिंह बहादुर ने जैनागों का प्रकाशन तो कर दिया किन्तु यह संस्करण वैज्ञानिक पद्धति से सम्पादित नहीं था।
राय धनपतिसिंह बहादुर के इस प्रकाशनसेजैनागम सर्वसुलभ होगए। पश्चिमी विद्वानों का ध्यान जब इस ओर गया तो उन्होंने जिस वैज्ञानिक पद्धति से लैटिन, ग्रीक आदि के प्राचीन ग्रंथों का सम्पादन किया था उसी पद्धति का उपयोग करते हुए कतिपय जैनागमों का भी सम्पादन किया।
पाश्चात्य विद्वान् जेकोबी
पश्चिमी विद्वानों में सर्वप्रथम जेकोबी (Jacobi) ने सन् 1879 में कल्पसूत्र का एक आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित किया। जेकोबी की कल्पसूत्र की भूमिका ने भविष्य के अनुसंधानों को आधारभूमि प्रदान की। श्री जेकोबी ने आचारांग, सूत्रकृतांग, कल्पसूत्र एवं उत्तराध्ययन का अनुवाद भी किया। जिनका प्रकाशन :Sacred Books of East' नामक सिरीज में हुआ। ये ग्रंथ जर्मन भाषा में निबद्ध किए गए हैं। उनमें से कुछ का अंग्रेजी संस्करण भी उपलब्ध है। श्री जेकोबी ने आगमों के अतिरिक्त भी जैन साहित्य पर विपुल मात्रा में कार्य किया है। जेकोबी ने ही सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि जैनधर्म बौद्धधर्म से भी प्राचीन है। पश्चिम में जैन विद्या पर कार्य करने वालों में जेकोबी का नाम अग्रणी व्यक्तियों में है। इनके कार्यों द्वारा पाश्चात्य जगत् में जैन धर्म-दर्शन को एक विशिष्ट पहचान प्राप्त हुई है।
ई. ल्यूमन
ई.ल्यूमन (E. Leumann 1859-1931) का भी जैन विद्या के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान रहा है। इन्होंने जैन आगमों पर कार्य किया तथा अपनी पी.एच.डी. की उपाधि 'औपपातिकसूत्र' पर शोध कार्य करके प्राप्त की। ल्यूमन ने दशवैकालिक एवं उसकी नियुक्ति का संपादन 1 8 92 में किया।
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