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________________ कर्ममीमांसा 239 चारित्र एवंतपके भवान्तर गमन का निषेध ज्ञान एवं दर्शन को ऐहभविक, पारभविक, उभयभविक माना गया है। चारित्र, तप एवं संयम को केवल ऐहभविक ही माना गया है क्योंकि उनका अनुगमन नहीं होता है। वृत्तिकार के अनुसार चारित्र अनुष्ठान रूप होता है और अनुष्ठान शरीर में ही सम्भव है।' चारित्र की तरह ही संयम एवं तप भी अनुष्ठानात्मक हैं अत: ये भी इसी तर्क से ऐहभविक सिद्ध होते हैं। चारित्र, तप और संयम-तीनों ही आचारात्मक हैं। चारित्र एवं संयम पर्यायवाची के रूप में भी प्रयुक्त होते हैं। तप चारित्र का ही एक प्रकार है। मोक्षमार्ग के प्रसंग में जहां मोक्षमार्ग के चार घटक तत्त्वों का उल्लेख है वहां तप का परिगणन चारित्र से अलग हुआ है जहां तीन ही घटक तत्त्वों का उल्लेख है वहां तप का अन्तर्भाव चारित्र में ही हो गया है। निष्कर्ष ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र-तीनों ही विशुद्धि रूप हैं। ज्ञान ज्ञानवरणीय कर्म का क्षय, क्षयोपशम है तथा दर्शन, दर्शनमोहनीय एवं चारित्र, चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम है। ज्ञान एवं दर्शन जब अनुगमनशील है तब चारित्र की अनुगमनशीलता क्यों नहीं है यह समालोच्य है। इस जन्म में जो ज्ञान सीखा है, वह उस रूप में तो अगले जन्म में जाता हुआ प्रतीत नहीं होता। यथा यहां कोई व्यक्ति डॉक्टर या इंजीनियर है तो अगले जन्म में यह ज्ञान जैसा यहां था वैसा ही अगले जन्म में होना सम्भव नहीं है। इसका तात्पर्य यही है कि विशुद्धि रूप ज्ञान का ही अनुगमन हो रहा है। चारित्र कोरा अनुष्ठानात्मक ही नहीं होता। वह चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम रूप भी है। ज्ञान विशुद्धि यदि अनुगमनशील है तो चारित्र विशुद्धि के अनुगमन में क्या बाधा हो सकती है ? एक डॉक्टर मनुष्य मरकर यदि पुन: मनुष्य बनता है और पुन: डॉक्टर बनना चाहता है तो उसे डॉक्टरी अध्ययन करना ही होगा उसी प्रकार एक चारित्र का पालक मरकर अन्य स्थान में जाता है तो नये सिरे से उसे चारित्र के नियमों को स्वीकार करना होता है। अत: ज्ञान, दर्शन का अनुगमन एवं चारित्र, संयम एवं तप का अननुगमन यह एक सापेक्ष वक्तव्य ही प्रतीत हो रहा है। पुनर्जन्म एवं आयुष्य कर्म पुनर्जन्म का सम्बन्ध वैसे तो सभी कर्मों से है किंतु उसका मुख्य हेतु आयुष्य कर्म उपलक्षित होता है। जिसके उदय से जीव प्राणधारण करता है वह आयुकर्म है। स्थानांगसूत्र में आयुपरिणाम के नौ प्रकार प्रज्ञप्त हैं-गति परिणाम, गतिबंधन परिणाम, स्थिति परिणाम, 1. भगवती वृत्ति 1/41 अनुष्ठानरूपत्वात् चारित्रस्य शरीराभावे च तदयोगात्। 2. उत्तरज्झयणाणि 28/2 नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा। एस मग्गो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं।। 3. तत्त्वार्थसूत्र । । सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । 4. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका 8/23, पृ. 172 आयुर्जीवनं-प्राणधारणं यदुदयाद् भवति तदायुः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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