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जैन आगम में दर्शन
आचार का प्रमुख अंग अपरिग्रह
आचार के क्षेत्र में अहिंसा का घोष उच्च स्वर से अनुगुंजित है किन्तु अपरिग्रह की आवाज अत्यन्त क्षीण हो गई है। जबकि सच्चाई यह है कि आचार का प्रमुख अंग अपरिग्रह है। अधिकांश हिंसा भी परिग्रह के कारण होती है। जैन आगम साहित्य में आचार के संदर्भ में अहिंसा और अपरिग्रह दोनों का उल्लेख हुआ है। कर्म-बंध के मुख्य हेतु दो हैं- आरम्भ और परिग्रह। राग-द्वेष, मोह आदि भी कर्मबंध के हेतु है किन्तु वे भी आरम्भ और परिग्रह के बिना नहीं होते। इन दोनों में भी परिग्रह गुरुतर कारण है। परिग्रह के लिए ही आरम्भ किया जाता है।' जम्बू ने आर्य सुधर्मा से पूछा-भगवान् महावीर की वाणी में बंधन क्या है और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? सुधर्मा ने उत्तर दिया-परिग्रह बंधन है, हिंसा बन्धन है। बंधन का हेतु है-ममत्व । प्रस्तुत प्रसंग में बंधन के हेतु के रूप में पहला स्थान परिग्रह को दिया गया, हिंसा को उसके बाद में रखा गया है। इससे भी स्पष्ट है कि प्राणातिपात आदि पांच आश्रवों में भी परिग्रह को गुरुतर कारण माना गया है। हिंसा के लिए परिग्रह नहीं होता अपितु परिग्रह के लिए हिंसा होती है। हिंसा कार्य है परिग्रह कारण है। आज हिंसा को समस्या माना जा रहा है, उसके शमन के उपाय खोजे जा रहे हैं किंतु उसके कारण पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कारण समाप्त हुए बिना कार्य समाप्ति की व्यवस्था निरापद नहीं हो सकती। अग्र एवं मूल दोनों पर ध्यान देना आवश्यक है। हिंसा की समस्या का समाधान अपरिग्रह के आलोक में ही खोजा जा सकता है।
आगम में अपरिग्रह को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। साधु के पंचमहाव्रतों में तथा श्रावक के व्रतों में अपरिग्रह को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं। यद्यपि गृहस्थ का अपरिग्रह एवं मुनि का अपरिग्रह एक नहीं है। मुनि सर्वथा अपरिग्रही होता है। गृहस्थ का अपरिग्रह व्रत इच्छा-परिमाण है। जैन दार्शनिकों ने बड़ी ही सूक्ष्मता से अपरिग्रह व्रत के अतिचारों का निरूपण किया है ताकि व्यावहारिक जीवन में अपरिग्रह की साधना में व्यक्ति को दिशा-निर्देश प्राप्त हो सके। क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, दासी-दास एवं कुप्य-भांड के प्रमाणों का अतिक्रमण करना इच्छा-परिमाण के अतिचार हैं।' व्रती गृहस्थ इन अतिचारों से बचने का सलक्ष्य प्रयत्न करता है। आर्थिक समस्याओं का समाधान अपरिग्रह व्रत के आचरण से प्राप्त हो सकता है। 2. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 21, 22, उक्तं हि-"आरम्भपरिग्र हौ बन्धहेतू' येऽपि च रागादय: तेऽपि
नारम्भपरिग्रहावन्तरेण भवन्तीति, तेन तावेव वा गरीयांसाविति..., तत्रापि परिग्रहनिमित्तं आरम्भ: क्रियत इति
कृत्वा स एव गरीयस्त्वात् पूर्वमुपदिश्यते। 3. सूयगडो, 1/1/2-3 4. वही, 1/1/4 5. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 2 2, पंचण्हं वा पाणातिवातादिआसवाणं परिग्गहो गुरुअतरो त्ति कातुं तेण पुव्वं परिग्गहो
वुच्चति। 6. आयारो, 3/34, अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे। 7. ठाणं, 5/1,2 8. उपासकदशा 1/28
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