Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्तावना
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उसका कारण कर्म है, पर मुक्त जीव में कर्मों का अभाव होने से मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन ही करता है ।। ऊर्ध्वगमन का तात्पर्य यह नहीं कि वह निरन्तर ऊर्ध्वगमन ही करता रहे, जैसा कि माण्डलिक मतावलम्बियों का अभिमत है। जैन दृष्टि से मुक्त जीव लोक के अन्तिम भाग तक ही ऊर्ध्वगमन करता है । आगे धर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव होने से वह वहीं पर स्थित हो जाता है। कितने ही दार्शनिक यह भी मानते हैं-मुक्त जीव जब देखते हैं कि संसार में धर्म की हानि हो रही है और अधर्म का प्रचार बढ़ रहा है तो धर्म की संस्थापना हेतु वे मोक्ष से पुनः संसार में आते हैं । सदाशिववादियों का मन्तव्य है कि सौकल्प (१०० कल्प) प्रमाण समय व्यतीत होने पर संसार जीवों से शून्य हो जाता है, तब मुक्त जीव पुनः संसार में आते हैं। जब कि जैन दर्शन का मन्तव्य है-जीव ने एक बार भाव-कर्म और द्रव्य-कर्म का पूर्ण विनाश कर दिया और मुक्त बन गया, वह आत्मा पुनः संसार में नहीं पाता। जैन दार्शनिकों ने अपने चिन्तन को परिपुष्ट करने के लिए लिखा है कि 'संसार के कारणभूत मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय आदि का मुक्त जीव में अभाव है, अत: वे संसार में पुनः नहीं पाते।' यदि मुक्त जीवों का संसार में पाना माना जाये तो कारण और कार्य की व्यवस्था ही नहीं रहेगी । जो पुद्गल हैं, गुरुत्व स्वभाव वाले हैं, वे ही ऊपर से नीचे की ओर गमन करते हैं, पर मुक्तात्मा में यह स्वभाव नहीं है । मुक्तात्मा अगुरुलघु स्वभाव वाला है, इसलिये उसकी मोक्ष से च्युति नहीं होती। जो गुरुत्व स्वभाव वाले होते हैं, वे ही नीचे गिरते हैं। गुरुत्व स्वभाव के कारण ही ग्राम का फल टहनी से गिरता है; नौकाओं में पानी भर जाने से वे डूबती हैं। मुक्तात्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, ज्ञाता और दृष्टा है, पर वीतरागी होने से न किसी के प्रति उनके अन्तनिस में राग होता है और न द्वेष ही होता है । राग और द्वेष का अभाव होने से उनमें कर्म-बन्धन नहीं होता और कर्म-बन्धन नहीं होने से वे पुनःसंसार में नहीं आते ।। एक बार प्रात्मा कर्मरहित हो गया, वह पुन: कर्म से युक्त नहीं होता । जैसे एक बार मिट्टी के कणों से स्वर्ण-करण पृथक हो गए, वे पुनः मिट्टी में नहीं मिलते, वैसे ही मुक्त जीव हैं । अाकाश में अवगाहन शक्ति रही हुई है, अतः स्वल्प आकाश में भी अनन्त सिद्ध उसी प्रकार रहते हैं, जैसे हजारों दीपकों का प्रकाश स्वल्प स्थान में समा जाता है । इसी तरह मुक्त जीवों में परस्पर विरोध है । १. द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा १४, ३७ २. तत्त्वार्थसूत्र १०/८ ३. (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, जीव प्रबोधिनी टीका गाथा ६६
(ख) स्याद्वादमञ्जरी पृष्ठ ४२ ४. (क) द्रव्यसंग्रह, गाथा १४, पृष्ठ ४० (ख) स्वाद्वादमञ्जरी, कारिका २६
(ग) मुण्डकोपनिषद ३/२/६ ५. तत्त्वार्थ-वार्तिक १०/४/८ पृ. ६४३ ६. (क) तत्त्वार्थसार ८/११-१२
(ख) तत्त्वार्थ-वार्तिक १/६/८, पृ० ६४३ ७. तत्त्वार्थ-वार्तिक १०/४/५-६
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