Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
बन्धन से मुक्त होकर आत्मा सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र होकर ज्ञान-दर्शन रूप अनुपम सुख का अनुभव करती है। यही बात धवला,2 सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थ-श्लोक-वार्तिक में भी कही गई है। सभी विज्ञों ने यह तथ्य स्वीकार किया है कि आत्म-स्वरूप का लाभ ही मोक्ष है । कर्म-मलों से मुक्त आत्मा शुद्ध है । बौद्ध दार्शनिकों ने मोक्ष के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है-जैसे दीपक के बुझ जाने से प्रकाश का अन्त हो जाता है, वैसे ही कर्मों का क्षय हो जाने से निर्वाण में चित्सन्तति का विनाश हो जाता है, इसलिये मोक्ष में जीव का अस्तित्व नहीं है । पर, जैन दार्शनिकों का अभिमत है कि मोक्ष में जीव का प्रभाव नहीं होता । जीव एक भव से भवान्तर रूप परिणमन करता है । देवदत्त के एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाने पर उसका प्रभाव नहीं माना जाता, वैसे ही जीव के मुक्त होने पर उसका प्रभाव नहीं होता । प्राचार्य अकलंक ने भी बौद्ध दार्शनिकों के अभिमत पर चिन्तन करते हुए लिखा है---'दीपक के बुझ जाने पर दीपक का विनाश नहीं होता, किन्तु उस दीपक के तेजस् परमाणु अन्धकार में परिवर्तित हो जाते हैं, वैसे ही मोक्ष होने पर जीव का विनाश नहीं होता, अपितु कर्मों का क्षय होते ही प्रात्मा अपने विशुद्ध चैतन्यावस्था में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए मोक्ष में जीव का अभाव नहीं होता।
कितने ही बौद्ध दार्शनिकों का अभिमत है कि मुक्त जीव जिस स्थान से मुक्त होता है, वह जीव उसी स्थान पर स्थिर होकर रह जाता है। उस जीव का किसी दिशा और विदिशा में गमन नहीं होता, और न वह जीव ऊपर या नीचे ही जाता है, क्योंकि मुक्त जीव में संकोच, विकास और गति आदि के कारणों का पूर्ण अभाव है । जैसे कोई व्यक्ति सांकल से बंधा हुआ है, उस व्यक्ति को सांकल से मुक्त करने पर भी वह वहीं पर स्थिर रहता है, वही स्थिति मुक्त जीव की है। पर, जैन दार्शनिकों का अभिमत है कि, मुक्तात्मा एक क्षण भी मुक्त स्थल पर अवस्थित नहीं रहता, अपितु वह जिस स्थान पर मुक्त होता है, वहाँ से वह ऊर्ध्वगमन करता है । आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन का है ।' अधोलोक और तिर्यक् लोक में जो गमन होता है,
१. तत्त्वार्थ-वार्तिक १/४/२७, पृष्ठ १२ २. धवला १३/५/५/८२, पृष्ठ ३४८ ३. सर्वार्थसिद्धि ७/१६ ४. तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक, १/१/४ ५. तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक १/१/४ ६. तत्त्वार्थ-वार्तिक १०/४/१७, पृष्ठ ६४४ ७. (क) सर्वार्थसिद्धि १०/४; पृष्ठ ३६०
(ख) अश्वघोष कृत, सौन्दरानन्द ८. द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा १४ ६. उत्तराध्ययन ३६/५६-५७
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