Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्तावना
८३
सम्यक् चारित्र के अन्तर्गत सम्यक् तप का भी उल्लेख हुया है । तत्त्वार्थसूत्र प्रभृति ग्रन्थों में सम्यक् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र-इस विविध साधना मार्ग का उल्लेख है, तो उत्तराध्ययन आदि में चतुर्विध साधना का निरूपण हुया है। उसमें सम्यक् तप को चतुर्थ साधना का अंग माना है । तप साधक के जीवन का तेज है, अोज है। तप प्रात्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है, पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने की एक वैज्ञानिक पद्धति है । तप के द्वारा ही पाप कर्म नष्ट होते हैं, जिससे आत्म-तत्त्व की उपलब्धि होती है और प्रात्मा का शुद्धिकरण होता है । अनन्त काल से कर्म-वर्गणाओं के पुद्गल राग-द्वेष व कषाय के कारण प्रात्मा के साथ एकीभूत हो चुके हैं । उन कर्म-पुद्गलों को नष्ट करने के लिये तप आवश्यक है । तप से कर्म-पुद्गल प्रात्मा से पृथक् होते हैं और आत्मा की स्वशक्ति प्रकट होती है तथा शुद्ध प्रात्म-तत्त्व की उपलब्धि होती है । तप का लक्ष्य है- प्रात्मा का विशुद्धीकरण व आत्म परिशोधन । जैन-परम्परा में ही नहीं, वैदिक और बौद्ध परम्परा ने भी तप की महिमा और गरिमा को स्वीकार किया है। इन तीनों ही परम्पराओं ने आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिये तप का निरूपण किया है और तप के विविध भेद-प्रभेद भी किये हैं।
प्राचार्य सिद्धर्षि गणी ने उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा में जीवन-शुद्धि के लिये, ये चारों मार्ग प्रतिपादित किये हैं। उन्होंने कथा के माध्यम से यह बताया है कि 'सम्यग्दर्शन की एक बार उपलब्धि हो जाने पर भी जीव पुनः मिथ्यात्वी बन जाता है, और वहाँ पर चिरकाल तक विपरीत श्रद्धान को स्वीकार कर जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करने लगता है । सम्यग्दर्शन और सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिए वह पुनः प्रयासरत होता है और उससे आगे बढ़कर सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप को स्वीकार कर, वह एक दिन सम्पूर्ण कर्म-शत्रुओं को नष्ट कर पूर्ण मुक्त बन जाता है । और, सदा-सदा के लिये उस जीवात्मा का भव-प्रपंच मिट जाता है तथा वह आत्मा मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।'
मोक्ष का अर्थ मुक्त होना है। मोक्ष शब्द 'मोक्ष असने' धातु से बना है, जिसका अर्थ छूटना या नष्ट होना होता है । इसलिये समस्त कर्मों का समूल प्रात्यन्तिक उच्छेद होना मोक्ष है । पूज्यपाद ने लिखा है- 'जब आत्मा कर्म रूपी कलंक शरीर से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है, तब अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञान आदि गुण रूप और अव्याबाध आदि सुख रूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, वह मोक्ष है'। तत्त्वार्थ-वार्तिक में प्राचार्य अकलङ्क ने लिखा है- 'बन्धन से आबद्ध प्राणी, बन्धन से मुक्त हो कर अपनी इच्छानुसार गमन कर सुख का अनुभव करता है, वैसे ही कर्म के
१. (क) सर्वार्थसिद्धि १/४ (ख) तत्त्वार्थ-वार्तिक १/१/३७ २. सर्वार्थ-सिद्धि-उत्थानिका, पृष्ठ १
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