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सृष्टिखण्ड ]
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सप्तर्षि आश्रमके प्रसङ्गमें सप्तर्षियोंके अल्लोभका वर्णन, अन्नदानादि धर्मोकी प्रशंसा •
तृष्णारूपी सूईसे संसाररूपी सूत्रका विस्तार होता है। तृष्णाका कहीं ओर-छोर नहीं है, उसका पेट भरना कठिन होता है; वह सैकड़ों दोषोंको ढोये फिरती है; उसके द्वारा बहुत से अधर्म होते हैं। अतः तृष्णाका परित्याग ही उचित है।
गौतम बोले- इन्द्रियोंके लोभग्रस्त होनेसे सभी मनुष्य सङ्कटमें पड़ जाते हैं। जिसके चित्तमें सन्तोष हैं, उसके लिये सर्वत्र धन-सम्पत्ति भरी हुई है; जिसके पैर जूतेमें हैं, उसके लिये सारी पृथ्वी मानो चमड़ेसे मढ़ी है। सन्तोषरूपी अमृतसे तृप्त एवं शान्त चित्तवाले पुरुषोंको जो सुख प्राप्त है, वह धनके लोभसे इधर-उधर दौड़नेवाले लोगोंको कहाँसे प्राप्त हो सकता है। असन्तोष ही सबसे बढ़कर दुःख है और सन्तोष ही सबसे बड़ा सुख है; अतः सुख चाहनेवाले पुरुषको सदा सन्तुष्ट रहना चाहिये। *
विश्वामित्रने कहा- किसी कामनाकी पूर्ति चाहनेवाले मनुष्यकी यदि एक कामना पूर्ण होती है, तो दूसरी नयी उत्पन्न होकर उसे पुनः बाणके समान बींधने लगती है। भोगोंकी इच्छा उपभोगके द्वारा कभी शान्त नहीं होती, प्रत्युत घी डालनेसे प्रज्वलित होनेवाली अफ्रिकी भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। भोगोंकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष मोहवश कभी सुख नहीं पाता।
जमदग्नि बोले- जो प्रतिग्रह लेनेकी शक्ति रखते हुए भी उसे नहीं ग्रहण करता, वह दानी पुरुषोंको मिलनेवाले सनातन लोकोंको प्राप्त होता है। जो ब्राह्मण राजासे धन लेता है, वह महर्षियोंद्वारा शोक करनेके योग्य है; उस मूर्खको नरक यातनाका भय नहीं दिखायी देता। प्रतिग्रह लेने में समर्थ होकर भी उसमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि प्रतिग्रहसे ब्राह्मणोंका ब्रह्मतेज
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नष्ट हो जाता है।
अरुन्धतीने कहा - तृष्णाका आदि अन्त नहीं है, वह सदा शरीरके भीतर व्याप्त रहती है। दुष्ट बुद्धिवाले पुरुषोंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो शरीरके जीर्ण होनेपर भी जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणान्तकारी रोगके समान है, उस तृष्णाका त्याग करनेवालेको ही सुख मिलता है।
पशुसख बोले- धर्मपरायण विद्वान् पुरुष जैसा आचरण करते हैं, आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवाले विद्वान् पुरुषको वैसा ही आचरण करना चाहिये ।
ऐसा कहकर दृढ़तापूर्वक नियमोंका पालन करनेवाले वे सभी महर्षि उन सुवर्णयुक्त फलोंको छोड़ अन्यत्र चले गये। घूमते-घामते वे मध्य पुष्करमें गये, जहाँ अकस्मात् आये हुए शुनःसख नामक परिब्राजकसे उनकी भेंट हुई। उसके साथ वे किसी वनमें गये। वहाँ उन्हें एक बहुत बड़ा सरोवर दिखायी दिया, जिसका जल कमलोंसे आच्छादित था। वे सब-के-सब उस सरोवरके किनारे बैठ गये और कल्याणका चिन्तन करने लगे। उस समय शुनःसखने क्षुधासे पीड़ित उन समस्त मुनियोंसे इस प्रकार कहा - 'महर्षियो! आप सब लोग बताइये, भूखकी पीड़ा कैसी होती है ?'
ऋषियोंने कहा - शक्ति, खड्ग, गदा, चक्र, तोमर और बाणोंसे पीड़ित किये जानेपर मनुष्यको जो वेदना होती है, वह भी भूखकी पीड़ाके सामने मात हो जाती है। दमा, खाँसी, क्षय, ज्वर और मिरगी आदि रोगोंसे कष्ट पाते हुए मनुष्यको भी भूखकी पीड़ा उन सबकी अपेक्षा अधिक जान पड़ती है। जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंसे पृथ्वीका सारा जल खींच लिया जाता है, उसी प्रकार पेटकी आगसे शरीरकी समस्त नाड़ियाँ सूख जाती हैं। क्षुधासे पीड़ित मनुष्यको आँखोंसे कुछ सूझ नहीं
* सर्वत्र सम्पदस्तस्य सन्तुष्टं यस्य मानसम् । उपानद्गूढपादस्य ननु चर्मावृतेव भूः ॥ सन्तोषामृततृशानां यत्सुखं शान्तचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च असन्तोषः परं दुःखं सन्तोषः परमं सुखम्। सुखार्थी पुरुषस्तस्मात्सन्तुष्टः सततं भवेत् ॥
धावताम् ॥
( १९ । २५९-६१ )