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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
करें-अच्छे-अच्छे गाँव, धान और जौ आदि अन्न, ही कटु परिणामको उत्पन्न करता है; अतः जो सुख एवं घृत-दुग्धादि रस, तरह-तरहके रत्न, सुवर्ण तथा दूध अनन्त पदकी इच्छा रखता हो, उसे तो इसे कदापि नहीं देनेवाली गौएँ ले लें।
लेना चाहिये। ऋषियोंने कहा-राजन् ! प्रतिग्रह बड़ी भयंकर वसिष्ठजीने कहा-इस लोकमें धनसशयकी वृत्ति है। वह स्वादमें मधुके समान मधुर, किन्तु अपेक्षा तपस्याका सञ्चय ही श्रेष्ठ है। जो सब प्रकारके परिणाममें विषके समान घातक है। इस बातको स्वयं लौकिक संग्रहोंका परित्याग कर देता है, उसके सारे जानते हुए भी तुम क्यों हमें लोभमें डाल रहे हो?' दस उपद्रव शान्त हो जाते हैं। संग्रह करनेवाला कोई भी कसाइयोंके समान एक चक्री (कुम्हार या तेली), दस मनुष्य ऐसा नहीं है, जो सुखी रह सके। ब्राह्मण चक्रियोंके समान एक शराब बेचनेवाला, दस शराब जैसे-जैसे प्रतिग्रहका त्याग करता है, वैसे-ही-वैसे बेचनेवालोंके समान एक वेश्या और दस वेश्याओंके सन्तोषके कारण उसके ब्रह्म-तेजकी वृद्धि होती है। एक समान एक राजा होता है। जो प्रतिदिन दस हजार ओर अकिञ्चनता और दूसरी ओर राज्यको तराजूपर हत्यागृहोंका सञ्चालन करता है, वह शौण्डिक है; राजा रखकर तोला गया तो राज्यकी अपेक्षा अकिञ्चनताका ही भी उसीके समान माना गया है। अतः राजाका प्रतिग्रह पलड़ा भारी रहा; इसलिये जितात्मा पुरुषके लिये कुछ अत्यन्त भयङ्कर है। जो ब्राह्मण लोभसे मोहित होकर भी संग्रह न करना ही श्रेष्ठ है। राजाका प्रतिग्रह स्वीकार करता है, वह तामिस्र आदि कश्यपजी बोले-धन-सम्पत्ति मोहमें घोर नरकोंमें पकाया जाता है।* अतः महाराज ! तुम डालनेवाली होती है। मोह नरकमें गिराता है; इसलिये अपने दानके साथ ही यहाँसे पधारो। तुम्हारा कल्याण कल्याण चाहनेवाले पुरुषको अनर्थक साधन अर्थका हो। यह दान दूसरोंको देना।
दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये। जिसको धर्मके लिये यह कहकर वे सप्तर्षि वनमें चले गये। तदनन्तर धन-संग्रहकी इच्छा होती है, उसके लिये उस इच्छाका राजाकी आज्ञासे उसके मन्त्रियोंने गूलरके फलोंमें त्याग ही श्रेष्ठ है; क्योंकि कीचड़को लगाकर धोनेकी सोना भरकर उन्हें पृथ्वीपर बिखेर दिया। सप्तर्षि अन्नके अपेक्षा उसका स्पर्श न करना ही उत्तम है। धनके द्वारा दाने बीनते हुए वहाँ पहुँचे तो उन फलोंको भी उन्होंने जिस धर्मका साधन किया जाता है, वह क्षयशील माना हाथमें उठाया।
या त गया है। दूसरेके लिये जो धनका परित्याग है, वही उन्हें भारी जानकर अत्रिने कहा-'ये फल अक्षय धर्म है, वही मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है। ग्रहण करनेयोग्य नहीं हैं। हमारी ज्ञानशक्तिपर मोहका भरद्वाजने कहा-जब मनुष्यका शरीर जीर्ण पर्दा नहीं पड़ा है, हम मन्दबुद्धि नहीं हो गये हैं। हम होता है, तब उसके दाँत और बाल भी पक जाते हैं; समझदार हैं, ज्ञानी हैं, अतः इस बातको भलीभाँति किन्तु धन और जीवनकी आशा बूढ़े होनेपर भी जीर्ण समझते हैं कि वे गूलरके फल सुवर्णसे भरे हैं। धन इसी नहीं होती-वह सदा नयी ही बनी रहती है। जैसे दर्जी लोकमें आनन्ददायक होता है, मृत्युके बाद तो वह बड़े सूईसे वस्त्रमें सूतका प्रवेश करा देता है, उसी प्रकार
* दशसूनासमश्चक्री दशक्रिसमो ध्वजः । दशध्वजसमा वेश्या दशवेश्यासमो नृपः ॥ दशसूनासहखाणि यो वाहयति शौण्डिकः । तेन तुल्यस्ततो राजा पोरस्तस्य प्रतिग्रहः ॥ यो राज्ञः प्रतिगृहाति ब्राह्मणो लोभमोहितः। तामिस्रादिषु घोरेषु नरकेषु स पच्यते।
(१९ । २३६-३८)
* इहैवात्तं बसु प्रीत्यै प्रेत्य वै कटुकोदयम्। तस्मान
प्राह्यमेवैतत्सुखमानन्त्यमिच्छता ॥
(१९॥ २४३)