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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
भीष्मजीने पूछा- महामुने! क्या कारण था, जिससे विन्ध्य पर्वत सहसा क्रोधसे मूर्च्छित हो बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था ?
पुलस्त्यजीने कहा- सूर्य प्रतिदिन उदय और अस्तके समय सुवर्णमय महापर्वत गिरिराज मेरुकी परिक्रमा किया करते हैं। एक दिन सूर्यको देखकर विन्ध्याचलने उनसे कहा- 'भास्कर ! जिस प्रकार आप प्रतिदिन मेरुपर्वतकी परिक्रमा किया करते हैं, उसी प्रकार मेरी भी कीजिये।' यह सुनकर सूर्यने गिरिराज विन्ध्यसे कहा- 'शैल! मैं अपनी इच्छासे मेरुकी परिक्रमा नहीं करता; जिन्होंने इस संसारकी सृष्टि की है, उन विधाताने ही मेरे लिये यह मार्ग नियत कर दिया है।' उनके ऐसा कहनेपर विन्ध्याचलको सहसा क्रोध हो आया और वह सूर्य तथा चन्द्रमाका मार्ग रोकनेके लिये बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया। तब इन्द्रादि सम्पूर्ण देवताओंने जाकर बढ़ते हुए गिरिराज विन्ध्याचलको रोका, किन्तु उसने उनकी बात नहीं मानी। तब वे महर्षि अगस्त्यके पास जाकर बोले- 'मुनीश्वर शैलराज विन्ध्य क्रोधके वशीभूत होकर सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्रोंका मार्ग रोक रहा है; उसे कोई निवारण नहीं कर पाता।'
देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्मर्षि अगस्त्यजी विन्ध्यके पास गये और आदरपूर्वक बोले'पर्वतश्रेष्ठ ! मैं दक्षिण दिशामें जानेके लिये तुमसे मार्ग चाहता हूँ; जबतक मैं लौटकर न आऊँ, तबतक तुम नीचे रहकर ही मेरी प्रतीक्षा करो।' [मुनिकी बात मानकर विन्ध्याचलने वैसा ही किया।] महर्षि अगस्त्य दक्षिण दिशासे आजतक नहीं लौटे; इसीसे विन्ध्य पर्वत अब नहीं बढ़ता। भीष्म ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार यह प्रसङ्ग मैंने सुना दिया; अब देवताओंने जिस प्रकार कालकेय दैत्योंका वध किया, वह वृत्तान्त सुनो।
देवताओंके वचन सुनकर महर्षि अगस्त्यने पूछा'आपलोग किसलिये यहाँ आये हैं और मुझसे क्या वरदान चाहते हैं?' उनके इस प्रकार पूछनेपर देवताओंने कहा-' -'महात्मन्! हम आपसे एक अद्भुत वरदान चाहते हैं। महर्षे! आप कृपा करके समुद्रको पी
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
जाइये। आपके ऐसा करनेपर हमलोग देवद्रोही कालकेय नामक दानवोंको उनके सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालेंगे।' महर्षिने कहा- 'बहुत अच्छा, देवराज ! मैं आपलोगोंकी इच्छा पूर्ण करूँगा। ऐसा कहकर वे देवताओं और तपःसिद्ध मुनियोंके साथ जलनिधि समुद्रके पास गये। उनके इस अद्भुत कर्मको देखनेकी इच्छासे बहुतेरे मनुष्य, नाग, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर भी उन महात्माके पीछे-पीछे गये महर्षि सहसा समुद्रके तटपर जा पहुँचे। समुद्र भीषण गर्जना कर रहा था। वह अपनी उत्ताल तरङ्गोंसे नृत्य करता हुआ-सा जान पड़ता था। महर्षि अगस्त्यके साथ सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व, नाग और महाभाग मुनि जब महासागरके किनारे पहुँच गये, तब महर्षिने समुद्रको पी जानेकी इच्छासे उन सबको लक्ष्य करके कहा - 'देवगण ! सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये इस समय मैं इस महासागरको पिये लेता हूँ; अब आपलोगोंको जो कुछ करना हो, शीघ्र ही कीजिये।' यो कहकर वे सबके देखते-देखते समुद्रको
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पी गये। यह देखकर इन्द्र आदि देवताओंको बड़ा विस्मय हुआ तथा वे महर्षिकी स्तुति करते हुए कहने लगे भगवन्! आप हमारे रक्षक और लोकोंको नया