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सृष्टिखण्ड ]
. पुष्करका माहात्म्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन •
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दूसरोंने झरनोंकी शरण ली, कितनोंने भयसे व्याकुल बताता हूँ, निश्चिन्त होकर सुनो। कालकेय नामसे होकर प्राण त्याग दिये। इस प्रकार यज्ञ और उत्सवोंसे विख्यात जो दानवोंका समुदाय है, वह बड़ा ही निष्ठुर रहित होकर जब सारा जगत् नष्ट होने लगा, तब इन्द्र- है। उन दानवोंने ही परस्पर मिलकर सम्पूर्ण जगत्को सहित सम्पूर्ण देवता व्यथित होकर भगवान् श्रीनारायणकी कष्ट पहुँचाना आरम्भ किया है। वे इन्द्रके द्वारा शरणमें गये और इस प्रकार स्तुति करने लगे। वृत्रासुरको मारा गया देख अपनी जान बचानेके लिये
देवता बोले-प्रभो! आप ही हमारे जन्मदाता समुद्रमें घुस गये थे। नाना प्रकारके प्राहोंसे भरे हुए और रक्षक हैं। आप ही संसारका भरण-पोषण करने- भयङ्कर समुद्रमें रहकर वे जगत्का विनाश करनेके वाले हैं। चर और अचर-सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि लिये रातमें मुनियोंको खा जाते हैं। जबतक वे समुद्रके आपसे ही हुई है। कमलनयन ! पूर्वकालमें यह भूमि भीतर छिपे रहेंगे, तबतक उनका नाश होना असम्भव नष्ट होकर रसातलमें चली गयी थी। उस समय आपने है, इसलिये अब तुमलोग समुद्रको सुखानेका कोई ही वराहरूप धारण करके संसारके हितके लिये इसका उपाय सोचो। समुद्रसे उद्धार किया था। पुरुषोत्तम ! आदिदैत्य पुलस्त्यजी कहते हैं-भगवान् श्रीविष्णुके ये हिरण्यकशिपु बड़ा पराक्रमी था, तो भी आपने वचन सुनकर देवता ब्रह्माजीके पास आकर वहाँसे महर्षि नरसिंहरूप धारण करके उसका वध कर डाला। इस अगस्त्यके आश्रमपर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने प्रकार आपके बहुत-से ऐसे [अलौकिक] कर्म है, मित्रावरुणके पुत्र परम तेजस्वी महात्मा अगस्त्य ऋषिको जिनकी गणना नहीं हो सकती। मधुसूदन ! हमलोग देखा। अनेकों महर्षि उनकी सेवामें लगे थे। उनमें भयभीत हो रहे हैं, अब आप ही हमारी गति हैं; इसलिये प्रमादका लेश भी नहीं था। वे तपस्याकी राशि जान देवदेवेश्वर ! हम आपसे लोककी रक्षाके लिये प्रार्थना पड़ते थे। ऋषिलोग उनके अलौकिक कर्मोकी चर्चा करते हैं। सम्पूर्ण लोकोंकी, देवताओंकी तथा इन्द्रकी करते हुए उनकी स्तुति कर रहे थे। महान् भयसे रक्षा कीजिये। आपकी ही कृपासे देवता बोले-महर्षे ! पूर्वकालमें जब राजा [अण्डज, स्वेदज, जरायुज एवं उद्भिज्ज-] चार नहुषके द्वारा लोकोंको कष्ट पहुंच रहा था, उस समय भागोंमें बैंटी हुई सम्पूर्ण प्रजा जीवन धारण करती है। आपने संसारके हितके लिये उन्हें इन्द्र-पदसे भ्रष्ट किया आपकी ही दयासे मनुष्य स्वस्थ होंगे और देवताओंकी और इस प्रकार लोकका काँटा दूर करके आप जगत्के हव्य-कव्योंसे तृप्ति होगी। इस प्रकार देव-मनुष्यादि आश्रयदाता हुए। जिस समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्याचल सम्पूर्ण लोक एक-दूसरेके आश्रित हैं। आपके ही सूर्यके ऊपर क्रोध करके बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था; अनुग्रहसे इन सबका उद्वेग शान्त हो सकता है तथा उस समय आपने ही उसे नतमस्तक किया; तबसे आपके द्वारा ही इनकी पूर्णतया रक्षा होनी सम्भव है। आजतक आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ वह पर्वत भगवन् ! संसारके ऊपर बड़ा भारी भय आ पहुंचा है। बढ़ता नहीं। जब सारा जगत् अन्धकारसे आच्छादित था पता नहीं, कौन रात्रिमें जा-जाकर ब्राह्मणोंका वध कर और प्रजा मृत्युसे पीड़ित होने लगी, उस समय आपको डालता है। ब्राह्मणोंका क्षय हो जानेपर समूची पृथ्वीका ही अपना रक्षक समझकर प्रजा आपको शरणमें आयी नाश हो जायगा। अतः महाबाहो ! जगत्पते ! आप ऐसी और उसे आपके द्वारा परम आनन्द एवं शान्तिकी प्राप्ति कृपा करें, जिससे आपके द्वारा सुरक्षित होकर इन हुई। जब-जब हमलोगोंपर भयका आक्रमण हुआ, लोकोंका विनाश न हो।
तब-तब सदा ही आपने हमें शरण दी हैइसलिये आज __ भगवान् श्रीविष्णु बोले-देवताओ ! मुझे भी हम आपसे एक वरकी याचना करते हैं। आप प्रजाके विनाशका सारा कारण मालूम है। मैं तुम्हें भी वरदाता हैं [अतः हमारी इच्छा पूर्ण कीजिये] ।