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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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पृथ्वी और आकाशको घेरकर खड़ा था। कालकेय शेष दैत्योंको मारने लगे। देवताओंकी मार पड़नेपर वे नामके विशालकाय दानव हाथोंमें शस्त्र उठाये चारों महान् असुर भयसे पीड़ित हो वायुके समान वेगसे
ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। फिर तो दानवोंके साथ भागकर अगाध समुद्रमें जा छिपे। वहाँ एकत्रित होकर देवताओंका भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। दो घड़ीतक तो सब-के-सब तीनों लोकोका नाश करनेके लिये आपसमें ऐसी मार-काट हुई, जो सम्पूर्ण लोकको महान् भयमें सलाह करने लगे। उनमें जो विचारक थे, उन्होंने नाना डालनेवाली थी। वीरोकी भुजाओंसे चलायी हुई तलवारें प्रकारके उपाय बतलाये-तरह-तरहकी युक्तियाँ जब शत्रुके शरीरपर पड़ती थीं, तब बड़े जोरका शब्द सुझायौं । अन्ततोगत्वा यह निश्चय हुआ कि 'तपस्यासे ही होता था। आकाशसे पृथ्वीपर गिरते हुए मस्तक ताड़के सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं, इसलिये उसीका क्षय करनेके फलोंके समान जान पड़ते थे। उनसे वहाँकी सारी भूमि लिये शीघ्रता की जाय । पृथ्वीपर जो कोई भी तपस्वी, पटी हुई दिखायी देती थी। उस समय सोनेके कवच धर्मज्ञ और विद्वान् हो, उनका तुरंत वध कर दिया जाय। पहने हुए कालकेय दानव दावानलसे जलते हुए वृक्षोंके उनके नष्ट हो जानेपर सम्पूर्ण जगत्का स्वयं ही नाश समान प्रतीत होते थे। वे हाथोंमें परिघ लेकर हो जायगा। देवताओंपर टूट पड़े। उन्होंने एक साथ मिलकर बड़े उन सबकी बुद्धि मारी गयी थी; इसलिये उपर्युक्त वेगसे धावा किया था। यद्यपि देवता भी एक साथ प्रकारसे संसारके विनाशका निश्चय करके वे बहुत प्रसन्न संगठित होकर ही युद्ध कर रहे थे, तो भी वे उन हुए। समुद्ररूप दुर्गका आश्रय लेकर उन्होंने त्रिभुवनका दानवोंके वेगको न सह सके। उनके पैर उखड़ गये, वे विनाश आरम्भ किया। वे रातमें कुपित होकर निकलते भयभीत होकर भाग खड़े हुए। देवताओंको डरकर और पवित्र आश्रमों तथा मन्दिरोंमें जो भी मुनि मिलते, भागते और वृत्रासुरको प्रबल होते देख हजार आँखोंवाले उन्हें पकड़कर खा जाते थे। उन दुरात्माओंने वसिष्ठके इन्द्रको बड़ी घबराहट हुई। इन्द्रकी ऐसी अवस्था देख आश्रममें जाकर आठ हजार आठ ब्राह्मणोंका भक्षण कर सनातन भगवान् श्रीविष्णुने उनके भीतर अपने तेजका लिया तथा उस वनमें और भी जितने तपस्वी थे, उन्हें सञ्चार करके उनके बलको बढ़ाया। इन्द्रको श्रीविष्णुके भी मौतके घाट उतार दिया। महर्षि च्यवनके पवित्र तेजसे परिपूर्ण देख देवताओं तथा निर्मल अन्तःकरण- आश्रमपर, जहाँ बहुत-से द्विज निवास करते थे, जाकर वाले ब्रह्मर्षियोंने भी उनमें अपने-अपने तेजका सञ्चार उन्होंने फल-मूलका आहार करनेवाले सौ मुनियोंको किया। इस प्रकार भगवान् श्रीविष्णु, देवता तथा अपना ग्रास बना लिया। इस प्रकार रातमें वे मुनियोंका महाभाग महर्षियोंके तेजसे वृद्धिको प्राप्त होकर इन्द्र संहार करते और दिनमें समुद्रके भीतर घुस जाते थे। अत्यन्त बलवान् हो गये।
भरद्वाजके आश्रमपर जाकर उन दानवोंने वायु और जल देवराज इन्द्रको सबल जान वृत्रासुरने बड़े जोरसे पीकर संयम-नियमके साथ रहनेवाले बीस ब्रह्मचारियोंकी सिंहनाद किया। उसकी विकट गर्जनासे पृथ्वी, दिशाएँ, हत्या कर डाली। इस तरह बहुत दिनोंतक उन्होंने अन्तरिक्ष, धुलोक और आकाशमें सभी काँप उठे। वह मुनियोंका भक्षण जारी रखा, किन्तु मनुष्योंको इन भयंकर सिंहनाद सुनकर इन्द्रको बड़ा सन्ताप हुआ। हत्यारोंका पता नहीं चला। उस समय कालकेयोंके उनके हृदयमें भय समा गया और उन्होंने बड़ी भयसे पीड़ित होकर सारा जगत् [धर्म-कर्मकी ओरसे] उतावलीके साथ अपना महान् वज्रास्त्र उसके ऊपर छोड़ निरुत्साह हो गया। स्वाध्याय बंद हो गया। यज्ञ और दिया। इन्द्रके वज्रका आघात पाकर वह महान् असुर उत्सव समाप्त हो गये। मनुष्योंकी संख्या दिनोंदिन क्षीण निष्प्राण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तत्पश्चात् सम्पूर्ण होने लगी, वे भयभीत होकर आत्मरक्षाके लिये दसों देवता तुरंत आगे बढ़कर वृत्रासुरके वधसे सन्तप्त हुए दिशाओंमें दौड़ने लगे; कोई द्विज गुफाओंमें छिप गये,