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द्वितीयं पर्व
सुस्वादरससंपन्नैर्बाष्पच्छेयेरनन्तरैः । तृणैस्तृप्तिं परिप्राप्तैर्गोधनैः सितकक्षभूः ॥ १२ ॥ सारीकृतसमुद्देशः कृष्णसारैर्विसारिभिः । सहस्रसंख्यैर्गीर्वाणस्वामिनो लोचनैरिव ॥१३॥ केतकीधूलिधवला यस्य देशाः समुन्नताः । गङ्गापुलिनसंकाश विभान्ति जनसेविताः ॥ १४ ॥ शाककन्दलवाटेन श्यामल श्रीधरः क्वचित् । वनपाल कृतास्वादैर्नालिकेरैर्विराजितः ||१५|| कोटिभिः शुकचञ्चनां तथा शाखामृगाननैः । संदिग्धकुसुमैर्युक्तः पृथुभिर्दाडिमीवनैः ||१६|| वत्स [वन] पालीकराष्ट्रष्टमातुलिङ्गीफलाम्भसा । लिप्ताः कुङ्कुमपुष्पाणां प्रकरैरुपशोभिताः ||१७|| फलस्वादपयःपानसुखसंसुप्तमार्गगाः । वनदेवीप्रपाकारा द्राक्षाणां यत्र मण्डपाः || १८ || विलुप्यमानैः पथिकैः पिण्डखर्जूरपादपैः । कपिभिश्च कृताच्छोटैर्मोचानां निचितः फलैः ||१९|| तुङ्गार्जुनवनाकीर्ण तटदेशैर्महोदरैः । गोकुलाकलितोदें रिस्वरवत्कूलधारिभिः ॥२०॥ विस्फुरच्छफरीनालैर्विकसल्लोचनैरिव । हसद्भिरिव शुक्लानां पङ्कजानां कदम्बकैः ॥२१॥ तुङ्गैस्तरङ्गसंघातैर्नर्तनप्रसृतैरिव । गायद्भिरिव संसते हंसानां मधुरस्वनैः ॥२२॥ सामोदजनसंघातैः समासेवितसत्तटैः । सरोभिः सारसाकोणैर्वनरन्ध्रेषु भूषितः ॥ २३॥ [ कलापकम् ] संक्रीडनैर्वपुष्मद्भिराविकोष्ट्रकताकैः । कृतसंबाधसर्वाशो हितपालकपालितैः ॥२४॥ दिवाकररथाश्वानां लोभनार्थमिवोचितैः । पृष्ठैः कुङ्कुमपङ्केन चलत्प्रोथपुटैर्मुखैः ॥२५॥
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तृप्तिको प्राप्त थीं ऐसी गायोंके द्वारा उस देशके वन सफेद-सफेद हो रहे हैं ।। १०-१२ ।। जो इन्द्रके नेत्रोंके समान जान पड़ते हैं ऐसे इधर-उधर चौकड़ियाँ भरनेवाले हजारों श्याम हरिणसे उस देशके भू-भाग चित्र-विचित्र हो रहे हैं || १३ || जिस देशके ऊँचे-ऊँचे प्रदेश केतकीकी धूलिसे सफेद-सफेद हो रहे हैं और ऐसे जान पड़ते हैं मानो मनुष्योंके द्वारा सेवित गंगाके पुलिन ही हों ||१४|| जो देश कहीं तो शाकके खेतोंसे हरी-भरी शोभाको धारण करता है और कहीं वनपालोंसे आस्वादित नारियलों से सुशोभित है || १५ || जिनके फूल तोताओंकी चोचोंके अग्रभाग तथा वानरों के मुखों का संशय उत्पन्न करनेवाले हैं ऐसे अनारके बगीचोंसे वह देश युक्त है ||१६|| जो वनपालियों के हाथसे मर्दित बिजौराके फलों के रससे लिप्त हैं, केशरके फूलोंके समूह से शोभित हैं, तथा फल खाकर और पानी पीकर जिनमें पथिक जन सुखसे सो रहे हैं ऐसे दाखोंके मण्डप उस देशमें जगहजगह इस प्रकार छाये हुए हैं मानो वनदेवीके प्याऊके स्थान ही हों ॥। १७ - १८ || जिन्हें पथिक जन तोड़-तोड़कर खा रहे हैं ऐसे पिण्ड खर्जूरके वृक्षोंसे तथा वानरोंके द्वारा तोड़कर गिराये हुए केला फलों से वह देश व्याप्त है || १९|| जिनके किनारे ऊँचे-ऊँचे अर्जुन वृक्षोंके वनोंसे व्याप्त हैं, जो गायोंके समूह के द्वारा किये हुए उत्कट शब्दसे युक्त कूलोंको धारण कर रहे हैं, जो उछलती हुई मछलियोंके द्वारा नेत्र खोले हुए के समान और फूले हुए सफेद कमलोंके समूहसे हँसते हुए के समान जान पड़ते हैं, ऊँची-ऊँची लहरोंके समूह से जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो नृत्यके लिए ही तैयार खड़े हों, उपस्थित हंसोंकी मधुर ध्वनिसे जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो गान ही कर रहे हों, जिनके उत्तमोत्तम तटों पर हर्षसे भरे मनुष्योंके झुण्डके झुण्ड बैठे हुए हैं और जो कमलोंसे व्याप्त हैं ऐसे सरोवरोंसे वह देश प्रत्येक वन खण्डों में सुशोभित है । २०-२३ ।। हितकारी पालक जिनकी रक्षा कर रहे हैं ऐसे खेलते हुए सुन्दर शरीर के धारक भेड़, ऊँट तथा गायोंके बछड़ोंसे उस देशकी समस्त दिशाओं में भीड़ लगी रहती है ||२४|| सूर्यके रथके घोड़ोंको लुभाने के लिए ही मानो जिनके पीठके प्रदेश केशरकी पंकसे लिप्त हैं और जो चंचल अग्रभागवाले मुखोंसे वायुका स्वच्छन्दतापूर्वक इसलिए
१. संकाशो म । २. जिनसेविताः म । ३. कृताचोटः म । ४. कलितादार म. । ५. संसक्तः म । संसक्तं क. । ६. सामोदजनसंघात समासितसरित्तटैः म । (?) ७. सर्वाशा म. । ८. पालकैः म । ९. मित्रोचितैः म. ।
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