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षोडश पर्व
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खरदूषणमद्रस्य प्रवृत्ते परमाहवे । माभून्मरणसंप्राप्तिस्तस्माच्छान्तिरिहोचिता ॥५३॥ इति निश्चित्य संग्रामशिरसोऽपससार सः । नोदाराणां यतः कृत्ये मुच्यते चेतसा रसः ॥५४॥ ततः स मन्त्रिमिः साकं प्रवीणर्मन्त्रवस्तुनि । संमन्त्र्य निजसामन्तान्स्वदेशसमवस्थितान् ॥५५॥ समग्रबलसंयुक्तान्सर्वान् दीर्घाध्वगामिभिः । आह्वाययच्छिरोबद्धलेखभालैरिति द्रुतम् ॥५६॥ प्रह्लादमपि तत्रायाद्रावणप्रषितो नरः। स्वामिभक्त्या कृतं चास्य करणीयं यथोचितम् ॥५७॥ विद्यावतां प्रभोर्मद्र ! भद्रमित्यथ' चोदितः । सादरं भद्रमित्युक्त्वा स लेखं न्यक्षिपत्पुरः ॥५८॥ ततः स्वयं समादाय कृत्वा शिरसि संभ्रमात् । प्रह्लादोऽगाचयल्लेखमस्यार्थस्याभिधायकम् ॥५९॥ स्वस्ति स्थाने पुरस्यारादलंकारस्य नामतः । निविष्टपृतनः क्षेमी विद्याभृत्स्वामिनां पतिः ॥६॥ सौमालिनन्दनो रक्षःसन्तानाम्बर चन्द्रमाः । आदित्यनगरे भद्रं प्रह्लादं न्यायवेदिनम् ॥६१॥ कालदेशविधानज्ञमस्मत्प्रीतिपरायणम् । आज्ञापयति देहादिकुशलप्रश्नपूर्वकम् ॥६२॥ यथा मे प्रणताः सर्वे क्षिप्रं विद्याधराधिपाः । कराङ्गलिनखच्छायाकपिलीकृतम्र्धजाः ॥१३॥ पातालनगरेऽयं तु सुसंमद्धः स्वशक्तितः । वरुणः प्रत्यवस्थानमकरोदिति दुर्मतिः ॥६॥ हृदयव्यथविद्याभृचक्रेण परिवारितः । समुद्रमध्यमासाद्य दुरात्मायं सुखी किल ॥६५॥ ततोऽतिगहने युद्धे प्रवृद्धे खरदूषणः । शतेनैतस्य पुत्राणां कथंचिदपवर्तितः ॥६६॥
किया कि इस समय युद्धकी भावना रखना मेरे लिए शोभा नहीं देती ॥५२॥ यदि परम युद्ध जारी रहता है तो खरदूषके मरणकी आशंका है इसलिए इस समय शान्ति धारण करना ही उचित है ॥५३॥ ऐसा निश्चय कर रावण युद्धके अग्रभागसे दूर हट गया सो ठीक ही है क्योंकि उदार मनुष्योंका चित्त करने योग्य कार्यमें रसको नहीं छोड़ता अर्थात् करने न करने योग्य कार्यका विचार अवश्य रखता है ।।५४॥
तदनन्तर मन्त्र कार्य में निपुण मन्त्रियोंके साथ सलाह कर उसने अपने देशमें रहनेवाले समस्त सामन्तोंको सर्व प्रकारकी सेनाके साथ शीघ्र ही बुलवाया। बलवानेके लिए उसने लम्बा मार्ग तय करनेवाले तथा सिरपर लेख बाँधकर रखनेवाले दूत भेजे ।।५५-५६|| रावणके द्वारा भेजा हुआ एक आदमी प्रह्लादके पास भी आया सो उसने स्वामीकी भक्तिसे उसका यथायोग्य सत्कार किया ||५७|| तथा पूछा कि हे भद्र ! विद्याधरोंके अधिपति रावणकी कुशलता तो है ? तदनन्तर उस आदमीने 'कुशलता है' इस प्रकार कहकर आदरपूर्वक रावणका पत्र प्रह्लादके सामने रख दिया ॥५८|| तत्पश्चात् प्रह्लादने सहसा स्वयं ही उस पत्रको उठाकर मस्तकसे लगाया और फिर प्रकृत अर्थको कहनेवाला वह पत्र पढ़वाया ।।५९।। पत्रमें लिखा था कि अलंकारपुर नगरके समीप जिसकी सेना ठहरी है, जो कुशलतासे युक्त है, सोमालीका पुत्र है तथा राक्षस वंशरूपी आकाशका चन्द्रमा है ऐसा विद्याधर राजाओंका स्वामी रावण, आदित्य नगरमें रहनेवाले न्याय-नीतिज्ञ, देश-कालकी विधिके ज्ञाता एवं हमारे साथ प्रेम करने में निपुण भद्र प्रकृतिके धारी राजा प्रह्लादको शरीरादिकी कुशल कामनाके अनन्तर आज्ञा देता है कि हाथकी अंगुलियोंके नखोंकी कान्तिसे जिनके केश पीले हो रहे हैं ऐसे समस्त विद्याधर राजा तो शीघ्र ही आकर मेरे लिए नमस्कार कर चुके हैं पर पाताल नगरमें जो दुर्बुद्धि वरुण रहता है वह अपनी शक्तिसे सम्पन्न होनेके कारण प्रतिकूलता कर रहा है-विरोधमें खड़ा है। वह हृदयमें चोट पहुँचानेवाले विद्याधरोंके समूहसे घिरकर समुद्रके मध्यमें सुखसे रहता है। इसी विद्वेषके कारण इसके साथ अत्यन्त भयंकर युद्ध हुआ था सो इसके सौ पुत्रोंने खरदूषणको किसी तरह पकड़ लिया है ॥६०-६६।। १. शिरसोसमसाहसः म. । २. स्वामिभक्तिकृतं ख. । ३. भर्तुर्भद्र ब. । भद्रं भद्रमित्यर्थ म., ज. । ४. मित्यर्थचोदितः म., ब. । ५. ततो निगृहने म.। ६. वेष्टितः ।
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