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पद्मपुराणे कर्मणस्त्वशुभस्यास्य कस्यापि समुदीरणात् । बभूव खादितुं मांसं तेष्वेव दिवसेषु धीः ॥१३३॥ ततोऽनेन समाह्वाय सूदः स्वरमभाष्यत । मांसमत्तुं समुत्पन्ना मम मद्राद्य धीरिति ॥१३४॥ तेनोक्त देव जानासि दिनेष्वेतेष्वमारणम् । जिनपूजासमृद्धेषु समस्तायामपि क्षितौ ॥१३५।। नृपेणोचे पुनः सूदो म्रियेऽद्य यदि नामि तत् । इति निश्चित्य यद्युक्तं तदाचर किमुक्तिमिः ॥१३६॥ तदवस्थं नृपं ज्ञात्वा पुरात् सूदो बहिर्गतः । ददर्श मृतकं बालं तद्दिने परिखोज्झितम् ॥१३७॥ तं वस्त्रावृतमानीय संस्कृत्य स्वादुवस्तुभिः । नरेन्द्राय ददावत्तुं' मन्यसेऽमुष्य गोचरम् (?) ॥१३८॥ महामांसरसास्वादनितान्तप्रीतमानसः । भुक्त्वोत्थितो मिथः सूद स जगाद सविस्मयः ।।१३९॥ वद भद्र कुतः प्राप्तं मांसमेतत्त्वयेदृशम् । अनास्वादितपूर्वोऽयं रसो यस्यातिपेशलः ॥१४०॥ सोऽभयं मार्गयित्वास्मै यथावद् विन्यवेदयत् । ततो राजा जगादेदं सर्वदा क्रियतामिति ॥१४१॥ सूदोऽथ दातुमारब्धः शिशुवर्गाय मोदकान् । शिशवस्तत्प्रसङ्गेन प्रत्यहं तं समाययुः ॥१४२॥ गृहीत्वा मोदकान् यातां शिशूनां पश्चिमं ततः । मारयित्वा ददौ सूदो राज्ञे संस्कृत्य संततम् ॥१४३॥ प्रत्यहं क्षीयमाणेषु पौरबालेषु निश्चितः । सूदेन सहितो राजा देशात् पौरैर्निराकृतः ॥१४॥ कनकामासमुत्पन्नस्तस्य सिंहरथः सुतः । राज्येऽवस्थापितः पौरैः प्रणतः सर्वपार्थिवैः ॥१४५॥ महामांसरसासक्तः सौदासो जग्धसूदकः । बभ्राम धरणी दुःखी भक्षयन्नुज्झितान् शवान् ॥१४६॥
मास समाप्त होनेपर जब अष्टाह्निकाके आठ दिन आते थे तब उसके गोत्रमें कोई भी मांस नहीं खाता था भले ही उसका शरीर मांससे ही क्यों न वृद्धिंगत हुआ हो ॥१३२।। किन्तु इस राजा सौदासको किसी अशुभ कर्मके उदयसे इन्हीं दिनोंमें मांस खानेकी इच्छा उत्पन्न हुई ।।१३३।। तब उसने रसोइयाको बुलाकर एकान्तमें कहा कि हे भद्र ! आज मेरे मांस खानेकी इच्छा उत्पन्न हुई है ।।१३४।। रसोइयाने उत्तर दिया कि देव ! आप यह जानते हैं कि इन दिनोंमें समस्त पृथ्वीमें बड़ी समृद्धिके साथ जिनपूजा होती है तथा जीवोंके मारनेकी मनाही है ॥१३५॥ यह सुन राजाने रसोइयासे कहा कि यदि आज मैं मांस नहीं खाता हूँ तो मर जाऊंगा। ऐसा निश्चय कर जो उचित हो सो करो। बात करनेसे क्या लाभ है ? ||१३६।। राजाकी ऐसी दशा जानकर रसोइया नगरके बाहर गया। वहाँ उसने उसी दिन परिखामें छोड़ा हुआ एक मृतक बालक देखा ।।१३७|| उसे वस्त्रसे लपेटकर वह ले आया और स्वादिष्ट वस्तुओंसे पकाकर खानेके लिए राजाको दिया ॥१३८|| महामांस ( नरमांस ) के रसास्वादसे जिसका मन अत्यन्त प्रसन्न हो रहा था ऐसा राजा उसे खाकर जब उठा तब उसने आश्चर्यचकित हो रसोइयासे कहा कि भद्र ! जिसके इस अत्यन्त मधुर रसका मैंने पहले कभी स्वाद नहीं लिया ऐसा यह मांस तुमने कहाँसे प्राप्त किया है ? ॥१३९-१४०।। इसके उत्तरमें रसोइयाने अभयदानकी याचना कर सब बात ज्योंकी-त्यों बतला दी। तब राजाने कहा कि सदा ऐसा ही किया जाये ॥१४१।।
अथानन्तर रसोइयाने छोटे-छोटे बालकोंके लिए लड्डू देना शुरू किया, उसके लोभसे बालक प्रतिदिन उसके पास आने लगे ॥१४२॥ लड्डू लेकर जब बालक जाने लगते तब उनमें जो पीछे रह जाता था उसे मारकर तथा पकाकर वह निरन्तर राजाको देने लगा ॥१४३॥ जब प्रतिदिन नगरके बालक कम होने लगे तब लोगोंने इसका निश्चय किया और रसोइयाके साथसाथ राजाको नगरसे निकाल दिया ।।१४४।। सौदासकी कनकाभा स्त्रीसे एक सिंहरथ नामका पुत्र हुआ था। नगरवासियोंने उसे ही राज्यपदपर आरूढ़ किया तथा सब राजाओंने उसे प्रणाम किया ॥१४५।। राजा सौदास नरमांसमें इतना आसक्त हो गया कि उसने अपने रसोइयाको ही खा १. तेनोक्तो म., ख., ज., क. । २. वस्त्रावृत्त-म.। ३. मन्यसे मुख्यगोचरम् म., ख., ज.। ४. सर्वथा म. । ५. गच्छताम् । यातान् म.। ६. 'राज्ञ सततं सोऽथ सूदकः' म. ।
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