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त्रयोविंशतितमं पर्व
उपजातिवृत्तम् राज्ञोस्तयोः प्राणवियोजनेन नैमित्तमूढत्वमितं विवेकम् । दुःशिक्षितार्थर्मनुजैरकायें प्रवर्तते जन्तुरसारबुद्धिः ॥६॥ अस्याम्बुनाथस्य पुरी स्थितेयं प्रमिन्नपातालतलस्य मध्ये । कथं सराणामपि भीतिदक्षा गम्यस्वमायात् क्षितिगोचराणाम् ॥६५॥
उपेन्द्रवज्रावृत्तम् कृतं मयात्यन्तमिदं न योग्यं करोमि नैवं पुनरप्रधार्यम् ।
इति प्रधार्योत्तमदीप्तियुक्तो रविर्यथा स्वे निलये स रेमे ॥६६॥ इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते विभीषणव्यसनवर्णनं नाम त्रयोविंशतितमं पर्व ॥२३॥
इति श्रीजनक-दशरथ-कालनिवर्तनम् ।
हो जानेसे मोक्षमें भी उत्तम सुखको प्राप्त होता ॥६३।। मैंने जो उन दो राजाओंका प्राणघात किया है उससे जान पड़ता है कि मेरा विवेक निमित्तज्ञानीके द्वारा अत्यन्त मूढ़ताको प्राप्त हो गया था। सो ठीक ही है क्योंकि होन बुद्धि मनुष्य दुःशिक्षित मनुष्योंकी प्रेरणासे अकार्य में प्रवृत्ति करने ही लगते हैं ॥६४॥ यह लंकानगरी पातालतलको भेदन करनेवाले इस समुद्रके मध्य में स्थित है तथा देवोंको भी भय उत्पन्न करने में समर्थ है फिर भूमिगोचरियोंके गम्य कैसे हो सकती है ? ॥६५॥ 'मैंने जो यह कार्य किया है वह सर्वथा मेरे योग्य नहीं है अब आगे कभी भी ऐसा अविचारपूर्ण कार्य नहीं करूंगा' ऐसा विचारकर सूर्यके समान उत्तम कान्तिसे युक्त विभीषण अपने महलमें क्रीड़ा करने लगा ॥६६।।
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरितमें विभीषणके
व्यसनका वर्णन करनेवाला तेईसवाँ पर्व समाप्त हुआ।
१. गूढत्व-ख. । २. ख. ब. पुस्तकयोः पाठः ।
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