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पद्मपुराणे एवमाद्याः कलाश्चारुशीला लोकमनोहराः । अदीधरत्समस्ताः सा विनयोत्तमभूषणा ॥८३॥ कलागुणाभिरूपं च समुद्भता त्रिविष्टपे । अद्वितीया बभौ तस्याः कीर्तिराकृष्टमानसा ॥८॥ बहुनात्र किमुक्तेन शृणु राजन् समासतः । तस्या वर्षशतेनापि दुःशक्यं रूपवर्णनम् ॥८५।। पित्रा प्रधारितं तस्या योग्यः कोऽस्या भवेद् वरः । स्वयं रुचितमेवेयं गृह्णात्विति विसंशयम् ।।८६।। तदर्थ पार्थिवाः सर्वे वसुमत्यामुपाहृताः । हरिवाहननामाद्याः पुरोविभ्रमभूषिताः ॥८॥ गतो दशरथोऽप्यस्य जनकेन सह भ्रमन् । स्थितः स तादृशोऽप्येतान् लक्ष्म्या प्रच्छाद्य भूपतीन् ॥८॥ मञ्चेषु सुप्रपञ्चेषु निविष्टान् वसुधाधिपान् । प्रत्येकमैक्षतोदारान्प्रतीहायां निवेदितान् ॥८९॥ भ्राम्यन्ती सा ततः साध्वी नरलक्षणपण्डिता । कण्ठे दाशरथे न्यास दृष्टिनीलोत्पलस्रजम् ॥१०॥ भूपालनिवहस्थं तं सा ययौ चारुविभ्रमा । राजहंसं यथा हंसी वकवृन्दव्यवस्थितम् ॥११॥ भावमालागृहीतेऽस्मिन् न्यस्ता या द्रव्यमालिका । पौनरुक्त्यं प्रपेदेऽसौ लोकाचारकृतास्पदा ॥१२॥ केचित्तत्र जगुस्तारं प्रसन्नमनसो नृपाः । अहो योग्यो वृतः कोऽपि पुरुषोऽयं सुकन्यया ॥१३॥ केषांचित्त्वतिवैलक्ष्यात् स्वदेशगमनं प्रति । विररामातिरेण मनो वैवर्ण्यमीयुषाम् ।।९४॥ केचिदत्यन्तपृष्टत्वात् परमं कोपमागताः । युद्ध प्रति मनश्चक्रुः कृतकोलाहला भृशम् ॥१५॥ 'जगुश्च ख्यातसलुशान् महाभोगसमन्वितान् । त्यक्त्वा नो गृह्णतीमेतमज्ञातकुलशीलिनम् ॥१६॥
वह कन्या इसे भी अच्छी तरह जानती थीं ॥८२॥ इस तरह सुन्दर शीलकी धारक तथा विनयरूपी उत्तम आभूषणसे सुशोभित वह कन्या इन्हें आदि लेकर लोगोंके मनको हरण करनेवाली समस्त कलाओंको धारण कर रही थी ।।८३॥
कलागुणके अनुरूप उत्पन्न तथा लोगोंके मनको आकृष्ट करनेवाली उसकी कीर्ति तीनों लोकोंमें अद्वितीय अर्थात् अनुपम सुशोभित हो रही थी ।।८४॥ हे राजन् ! अधिक कहनेसे क्या ? संक्षेपमें इतना ही सुनो कि उसके रूपका वर्णन सौ वर्षों में भी होना संभव है ।।८५॥ पिताने विचार किया कि इसके योग्य वर कौन हो सकता है ? अच्छा हो कि यह स्वयं ही अपनी इच्छानुसार वरको ग्रहण करे ॥८६|| ऐसा निश्चय कर उसने स्वयंवरके लिए पृथिवीपरके हरिवाहन आदि समस्त राजा एकत्रित किये । वे राजा स्वयंवरके पूर्व ही नाना प्रकारके विभ्रमों अर्थात् हावभावोंसे सुशोभित हो रहे थे ।।८७॥ राजा जनकके साथ घूमते हुए राजा दशरथ वहाँ जा पहुंचे। राजा दशरथ यद्यपि साधारण वेषभूषामें थे तो भी वे अपनी शोभासे उपस्थित अन्य राजाओंको आच्छादित कर वहाँ विराजमान थे ॥८८|| सुसज्जित मंचोंके ऊपर बैठे हुए उदार राजाओंका परिचय प्रतीहारी दे रही थी और मनुष्योंके लक्षण जाननेमें पण्डित वह साध्वी कन्या घूमती हुई प्रत्येक राजाको देखती जाती थी। अन्तमें उसने अपनी दृष्टिरूपी नीलकमलकी माला दशरथके कण्ठमें डालो ।।८९-९०|| जिस प्रकार बगलोके बीचमें स्थित राजहंसके पास हंसी पहेंच जाती है उसी प्रकार सुन्दर हाव-भावको धारण करनेवाली वह कन्या राजसमूहके बीच में स्थित राजा दशरथके पास जा पहुँची ।।२१।। उसने दशरथको भावमालासे तो पहले ही ग्रहण कर लिया था फिर लोकाचारके अनुसार जो द्रव्यमाला डाली थी वह पुनरुक्तताको प्राप्त हुई थी ॥९२॥ उस मण्डपमें प्रसन्नचित्तके धारक कितने ही राजा जोर-जोरसे कह रहे थे कि अहो ! इस उत्तम कन्याने योग्य तथा अनुपम पुरुष वरा है ।।९३।। और कितने ही राजा अत्यन्त धृष्टताके कारण कुपित हो अत्यधिक कोलाहल करने लगे ॥९४॥ वे कहने लगे कि अरे! प्रसिद्ध वंशमें उत्पन्न तथा महाभोगोंसे सम्पन्न हम लोगोंको छोड़कर इस दुष्ट कन्याने जिसके कुल और शीलका पता नहीं
१. भूषणाः म. । २. यदर्थं म. । ३. लक्ष्या म. । ४. -मैक्षितोदारान् म.। ५. जग्मुश्च ख. । ६. त्यक्तवतो म. ।
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