Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 543
________________ पञ्चविंशतितमं पर्व . वैवस्वतसुतामैरः स्वीकृत्य गुरुसंमताम् । रात्रौ पलायनं कृत्वा प्राप दाशरथीं पुरीम् ॥५४॥ ढौकितश्चानरण्ये स्वं कौशलं च न्यवेदयत् । राज्ञा समर्पिता तस्मै तुष्टेन तनुसंभवाः ॥५५॥ तेष्वस्त्रकौशलं तस्य संक्रान्तं स्फीततां गतम् । सरःसु सुप्रसन्नेषु चन्द्रबिम्बमिवागतम् ॥५६॥ अन्यानि च गुरुप्राप्त्या विज्ञानानि प्रकाशताम् । यातानि तेषु रत्नानि पिधानापगमादिव ॥५७॥ स्रग्धराच्छन्दः दृष्ट्वा विज्ञानमेषामतिशयसहितं सर्वशास्त्रेषु राजा संप्राप्तस्तोषमग्र्यं सुतनयविनयोदारचेष्टाहृतात्मा । चक्रे पूजासमेतं गुरुषु गुणगणज्ञानपाण्डित्ययुक्तो यातं व्युत्क्रम्य वाञ्छाविभवमतितरां दानविख्यातकीर्तिः ॥ ५८ ॥ ज्ञानं संप्राप्य किंचिद् व्रजति परमतां तुल्यमन्यत्र यातं तावत्वेनापि नैति क्वचिदपि पुरुषे कर्मवैषम्ययोगात् । अत्यन्तं स्फीतिमेति स्फटिकगिरितटे तुल्यमन्यत्र देशे यात्येकान्तेन नाशं तिमिरवति खेरंशुवृन्दं खगौघैः ॥५९॥ इत्यार्षे रविषेणाचार्य प्रोक्ते पद्मचरिते चतुर्भ्रातृसंभवाभिधानं नाम पञ्चविंशतितमं पर्व ॥२५॥ O कहा था वह सब झूठ है तब उसने अस्त्राचार्यको सम्मानके साथ विदा किया और वह शिष्यमण्डल के साथ अपने घर चला गया ||५३ || ऐर गुरुकी सम्मतिसे उसकी पुत्रीको विवाह कर रात्रिमें वहाँसे भाग आया और राजा दशरथकी राजधानी अयोध्यापुरीमें आया ||५४ || वहाँ उसने राजा दशरथके पास जाकर उन्हें अपना कौशल दिखाया और राजाने सन्तुष्ट होकर उसे अपने सब पुत्र सौंप दिये || ५५ || सो जिस प्रकार निर्मल सरोवरोंमें प्रतिबिम्बित चन्द्रमाका बिम्ब विस्तारको प्राप्त होता है उसी प्रकार उन शिष्यों में ऐरका अस्त्रकौशल प्रतिबिम्बित होकर विस्तारको प्राप्त हो गया || ५६ || इसके सिवाय अन्य अन्य विषयोंके गुरु प्राप्त होनेसे उनके अन्य - अन्य ज्ञान भी उस तरह प्रकाशताको प्राप्त हो गये जिस तरह कि ढक्कनके दूर हो जानेसे छिपे रत्न प्रकाशताको प्राप्त हो जाते हैं ||५७|| पुत्रोंके नय, विनय और उदार चेष्टाओंसे जिनका हृदय हरा गया था ऐसे राजा दशरथ उन पुत्रोंका सर्वशास्त्रविषयक अतिशय पूर्णज्ञान देखकर अत्यन्त सन्तोषको प्राप्त हुए। वे गुणसमूहविषयक ज्ञान और पाण्डित्य से युक्त थे तथा दानमें उनकी कीर्ति अत्यन्त प्रसिद्ध थी, इसलिए उन्होंने समस्त गुरुओंका सम्मान कर उन्हें इच्छासे भी अधिक वैभव प्रदान किया था ||१८|| गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! किसी पुरुषको प्राप्तकर थोड़ा ज्ञान भी उत्कृष्टताको प्राप्त हो जाता है, किसीको पाकर उतनाका उतना ही रह जाता है और कर्मोंको विषमतासे किसी को पाकर उतना भी नहीं रहता । सो ठीक ही है क्योंकि सूर्यकी किरणोंका समूह स्फटिकगिरिके तटको पाकर अत्यन्त विस्तारको प्राप्त हो जाता है, किसी स्थान में तुल्यताको प्राप्त होता है अर्थात् उतनाका उतना ही रह जाता है और अन्धकारयुक्त स्थानमें बिलकुल ही नष्ट हो जाता है ॥५९॥ इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में राम आदि चार भाइयोंकी उत्पत्तिका कथन करनेवाला पचीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥२५॥ • १. संभ्रान्तं म । २. प्रकाशिताम् म. । ४९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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