Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 541
________________ पञ्चविंशतितमं पर्व प्रौढेन्दीवरगर्भाभः कान्तिवारिकृतप्लवः । 'सुलक्ष्मा लक्ष्मणाख्यायां पितृभ्यामेव योजितः ॥ २६ ॥ बालौ मनोज्ञरूपौ तौ विद्रुमाभरदच्छदौ । रक्तोत्पलसमच्छायपाणिपादौ सुविभ्रमौ ॥२७॥ नवनीतसुखस्पर्शी जातिसौरभधारिणौ । कुर्वाणौ शैशवीं क्रीडां चेतः कस्य न जहतुः ||२८|| चन्दनद्रवदिग्धाङ्गौ कुङ्कुमस्थासकाञ्चितौ । सुवर्णरससंपृक्तरजेताचलकोपमौ ॥२९॥ अनेकजन्मसंवृद्धस्नेहान्योन्यवशानुगी । अन्तःपुरगतौ सर्वबन्धुभिः कृतपालनौ ॥३०॥ विच्छ्र्दमिव कुर्वाणावस्मृतेन कृतस्वनौ । मुखपङ्केन लिम्पन्ताविव लोकं विलोकनात् ॥३१॥ छिन्दन्ताविव दारिद्र्यमाहूतागमकारिणौ । तर्पयन्ताविव स्वान्तं सर्वेषामनुकूलतः ॥३२॥ प्रसादसंमदौ साक्षादिव देहमुपागतौ । रेमाते तौ सुखं पुर्यां कुमारौ कृतरक्षणौ ॥३३॥ विजयश्च त्रिपृष्ठश्च यथापूर्वं बभूवतुः । तत्तुल्यचेष्टितावेवं कुमारौ तावशेषतः ॥ ३४॥ तनयं केकयासूत दिव्यरूपसमन्वितम् । यो जगाम महामाग्यो भुवने मरतश्रुतिम् ||३५|| सुषुवे सुप्रभा पुत्रं सुन्दरं यस्य विष्टपे । ख्यातिः शत्रुघ्नशब्देन सकलेऽद्यापि वर्तते ॥ ३६ ॥ बलनामापरं मात्रा पद्मस्येति विनिर्मितम् । सुमित्रया हरिर्नाम तनयस्य महेच्छया ॥३७॥ कृतोऽर्धचक्रिनामायं मात्रेति मरताभिधाम् । दृष्ट्वा चक्रिणि संपूर्ण केकया प्रापयत् सुतम् ॥३८॥ चक्रवर्तिध्वनिं नोतो मात्रायमिति सुप्रभा । तनयस्यार्हतो नाम शत्रुघ्नमिति निर्ममे ||३९|| होने लगे ||२५|| प्रौढ नील कमलके भीतरी भागके समान जिसकी आभा थी, जो कान्तिरूपी जलमें तैर रहा था और अनेक अच्छे-अच्छे लक्षणोंसे सहित था ऐसे उस पुत्रका माता-पिताने लक्ष्मण नाम रखा ||२६|| उन दोनों बालकों का रूप अत्यन्त मनोहर था, उनके ओंठ मूंगाके समान लाल थे, हाथ और पैर लाल कमलके समान कान्तिवाले थे, उनके विभ्रम अर्थात् हावभाव देखते ही बनते थे, उनका स्पर्श मक्खनके समान कोमल था, तथा जन्मसे ही वे उत्तम सुगन्धिको धारण करनेवाले थे । बाल-क्रीड़ा करते हुए वे किसका मन हरण नहीं करते थे ||२७२८|| चन्दनके लेपसे शरीरको लिप्त करनेके बाद जब वे ललाटपर कुंकुमका तिलक लगाते थे तब सुवर्णं रससे संयुक्त रजताचलकी उपमा धारण करते थे ||२९|| अनेक जन्मोंके संस्कारसे बढ़े हुए स्नेहसे वे दोनों ही बालक परस्पर एक दूसरेके वंशानुगामी थे, तथा अन्तःपुरमें समस्त बन्धु उनका लालन-पालन करते थे ||३०|| जब वे शब्द करते थे तब ऐसे जान पड़ते थे मानो अमृतका वमन ही कर रहे हों और जब किसीकी ओर देखते थे तब ऐसा जान पड़ते थे मानो उस लोकको सुखदायक पंकसे लिप्त ही कर रहे हों ||३१|| जब किसीके बुलानेपर वे उसके पास पहुँचते थे तब ऐसे जान पड़ते थे मानो दरिद्रताका छेद ही कर रहे हों। वे अपनो अनुकूलतासे सबके हृदयको मानो तृप्त ही कर रहे थे || ३२ || उन्हें देखनेसे ऐसा जान पड़ता था मानो प्रसाद और सम्पद् नामक गुण ही देह रखकर आये हों। जिनकी रक्षक लोग रक्षा कर रहे थे ऐसे दोनों बालक नगरी में सुखपूर्वक जहाँ-तहाँ क्रोड़ा करते थे ||३३|| जिस प्रकार पहले विजय और त्रिपृष्ठ नामक बलभद्र तथा नारायण हुए थे उसी प्रकार ये दोनों बालक भी उन्हींके समान समस्त चेष्टाओंके धारक हुए थे ||३४|| तदनन्तर केकया रानीने सुन्दर रूपसे सहित पुत्र उत्पन्न किया जो महाभाग्यवान् था तथा संसार में 'भरत' इस नामको प्राप्त हुआ था ||३५|| तत्पश्चात् सुप्रभा रानीने सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया जिसकी समस्त संसारमें आज भी 'शत्रुघ्न' नामसे प्रसिद्धि है || ३६ | अपराजिताने पद्मका दूसरा नाम बल रखा था तथा सुमित्राने अपने पुत्रका दूसरा नाम बड़ी इच्छासे हरि घोषित किया था ||३७|| केकयाने देखा कि 'भरत' यह नाम सम्पूर्ण चक्रवर्ती भरतमें आया है इसलिए उसने अपने पुत्रका अर्ध चक्रवर्ती नाम प्रकट किया ||३८|| सुप्रभाने विचार किया कि जब १. सुलक्ष्म्या म. । २. रजताञ्जनकोपमी म । ३ सुखपङ्केन ख., ज. । Jain Education International ४९१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604