Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 539
________________ पश्चविंशतितम पर्व अथापराजिता देवी सुखं सुप्ता वरालये । शयनीये महाकान्ते 'रत्नोद्योतसरःस्थिते ॥१॥ रजन्याः पश्चिमे यामे महापुरुषवेदिनः । नितान्तं परमान् स्वप्नानक्षताशयिता यथा ॥२॥ शुभ्रं स्तम्बेरमं सिंहं पद्मिनीबान्धवं विधुम् । दृष्ट्वा विबोधमायाता तूर्यमङ्गलनिस्वनैः ॥३॥ ततः प्रत्यङ्गकार्याणि कृत्वा विस्मितमानसा । दिवाकरकरालोकमण्डिते भुवने सति ॥४॥ सा विनीतान्तिकं भर्तुर्गत्वात्यन्तसमाकुला । सखीभिरावृता भद्रपीठभूषणकारिणी ॥५॥ कृताञ्जलिर्जगी स्वप्नान् किंचिद्विनतविग्रहा । स्वामिने सावधानाय यथादृष्टान्मनोहरान् ॥६॥ ततो निखिलविज्ञानपारदृश्वा नराधिपः । बुधमण्डलमध्यस्थः स्वप्नानामभ्यधात् फलम् ।।७।। परमाश्चर्यहेतुस्ते कान्ते पुत्रो भविष्यति । अन्तर्बहिश्च शत्रणां यः करिष्यति शातनम् ॥८॥ एवमुक्ते परं तोषं हस्तस्पृष्टोदरी ययौ। स्मितकेसरसंरुद्धमुखपद्मापराजिता ॥९॥ चकार च समं म; परं प्रमदमीयुषा । जिनेन्द्रवेश्मसस्फीतां पूजां पूजितभावना ॥१०॥ ततः प्रभृतिकान्त्यासी सुतरां स्मावगाद्यते । बभूव चेतसश्चास्याः शान्तिः कापि महौजसः ॥११॥ सुमित्रानन्तरं तस्या ईक्षांचक्रेऽतिसुन्दरी। विस्मिता पुलकोपेता स्वप्नान् साधुमनोरथा ॥१२॥ अथानन्तर उत्तम महल में रत्नोंके प्रकाशरूपी सरोवरके मध्यमें स्थित अत्यन्त सुन्दर शय्यापर सुखसे सोती हुई अपराजिता रानीने रात्रिके पिछले पहरमें महापुरुषके जन्मको सूचित करनेवाले अत्यन्त आश्चर्यकारक स्वप्न देखे। वे स्वप्न उसने इतनी स्पष्टतासे देखे थे जैसे मानो जाग ही रही थी॥१-२।। पहले स्वप्नमें उसने सफेद हाथी, दूसरेमें सिंह, तीसरेमें सूर्य और चौथेमें चन्द्रमा देखा था। इन सबको देखकर वह तुरहीके मांगलिक शब्दसे जाग उठी ।।३।। तदनन्तर जिसका मन आश्चर्यसे भर रहा था ऐसी अपराजिता प्रातःकाल सम्बन्धी शारीरिक क्रियाएँ कर, जब सूर्यके प्रकोशसे समस्त संसार सुशोभित हो गया तंब बड़ी विनयसे पतिके पास गयी। स्वप्नोंका फल जाननेके लिए उसका हृदय अत्यन्त आकूल हो रहा था तथा अनेक सखियाँ उसके साथ गयी थीं। जाकर वह उत्तम सिंहासनको अलंकृत करने लगी ॥४-५॥ जिसका शरीर संकोचवश कुछ नीचेकी ओर झुक रहा था ऐसी अपराजिताने हाथ जोड़कर स्वामीके लिए सब मनोहर स्वप्न जिस क्रमसे देखे थे उसी क्रमसे सुना दिये और स्वामीने भी बड़ी सावधानीसे सुने ।।६।। तदनन्तर समस्त ज्ञानोंके पारदर्शी एवं विद्वत्समूहके बीच में स्थित राजा दशरथने स्वप्नोंका फल कहा ॥७॥ उन्होंने कहा कि हे कान्ते ! तुम्हारे परम आश्चर्यका कारण ऐसा पुत्र उत्पन्न होगा जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके शत्रओंका नाश करेगा ॥८॥ पतिके ऐसा कहनेपर अपराजिता परम सन्तोषको प्राप्त हुई। उसने हाथसे उदरका स्पर्श किया तथा उसका मुखरूपी कमल मन्द मुसकानरूपी केशरसे व्याप्त हो गया ।।२।। प्रशस्त भावनासे युक्त अपराजिताने परम प्रसन्नताको प्राप्त पतिके साथ जिन-मन्दिरोंमें भगवान्को महापूजा की ॥१०॥ उस समयसे दिन-प्रति-दिन उसकी कान्ति बढ़ने लगी तथा उसका चित्त यद्यपि महाप्रतापसे युक्त था तो भी उसमें अद्भुत शान्ति उत्पन्न हो गयी थी ॥११॥ तदनन्तर अतिशय सुन्दरी सुमित्रा रानीने स्वप्न देखे। स्वप्न देखते समय वह आश्चर्यसे चकित हो गयी थी, उसके समस्त शरीरमें रोमांच निकल आये थे और उसका अभिप्राय अत्यन्त १. रत्नोद्योतशिरस्थिते म., ब. । २. हस्तस्पृष्टोदरा क. । ३. मुखकेसर-म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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