Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 542
________________ ४९२ पद्मपुराणे समुद्रा इव चत्वारः कुमारास्ते नया इव । दिग्विभागा इवोदारा बभूवुर्जगतः प्रियाः ॥४०॥ ततः कुमारकान् दृष्ट्वा विद्यासंग्रहणोचितान् । दध्यौ योग्यमुपाध्यायं पितैषां मनसाकुलः ॥४१॥ अथास्ति नगरं नाम्ना काम्पिल्यमिति सुन्दरम् । भार्गवोऽत्र शिखी ख्यातस्तस्येषुरिति भामिनी ॥४२॥ ऐररूढिस्तयोः पुत्रो दुर्विनीतोऽतिलालितः । उपालम्भसहस्राणां कारणीभूतचेष्टितः ॥४३॥ द्रविणोपार्जनं विद्याग्रहणं धर्मसंग्रहः । स्वाधीनमपि तत्प्रायो विदेश सिद्धिमश्नुते ॥४४॥ पितृभ्यां भवनादेष निर्विण्णाभ्यां निराकृतः। ययौ राजगृहं दुःखी वसानः कर्पटद्वयम् ॥४५॥ तत्र वैवस्वतो नाम धनुर्वेदातिपण्डितः । युक्ता सहस्रमात्रेण शिष्याणाममियोगिनाम् ॥४६॥ यथावत्तस्य पार्श्वेऽसौ धनुर्विद्यामुपागमत् । जातः शिष्यसहस्राच्च दूरेणाधिककौशलः ॥४७॥ श्रुतं कुशाग्रराजेन मत्सुतेभ्योऽपि कौशलम् । वैदेशे क्वापि विन्यस्तमिति ज्ञास्वा रुषं गतः ॥४८॥ श्रुत्वा च स्वामिनं क्रुद्धमस्त्राचार्येण शिक्षितः । एवमेरो यथा राज्ञः पुरः कुण्ठो भविष्यति ॥४९॥ स समाह्नियितः शिष्यैः सूतोऽसौ विभुना नृणाम् । शिक्षा पश्यामि सर्वेषां क्षात्राणमिति चोदितः ॥५०॥ ततोऽन्तेवासिनस्तेन क्रमेण शरमोचनम् । कारिता लक्ष्यपातं च सर्वे चक्रर्यथायथम् ॥५१॥ तथैरोऽपि स निर्य कः शरान चिक्षेप तादशान् । दुःशिक्षित इति ज्ञातो विभुना तेन यादशैः॥५२॥ विदित्वा वितथा सर्वां राज्ञा संप्रेषितो गतः । अस्त्राचार्यः स्वकं धाम शिष्यमण्डलमध्यगः ॥५३॥ केकयाने अपने पत्रका नाम चक्रवर्तीके नामपर रखा है तब मैं अपने पुत्रका नाम इससे भी बढ़कर क्यों नहीं रखू यह विचारकर उसने अहंन्त भगवान्के नामपर अपने पुत्रका नाम शत्रुघ्न रखा ॥३९|| जगत्के जीवोंको प्रिय लगनेवाले वे चारों कुमार समुद्रके समान गम्भीर थे, सम्यग् नयोंके समान परस्पर अनुकूल थे तथा दिग्विभागोंके समान उदार थे ॥४०॥ तदनन्तर इन कुमारोंको विद्या ग्रहणके योग्य देखकर इनके पिता राजा दशरथने बड़ी व्यग्रतासे योग्य अध्यापकका विचार किया ॥४१॥ अथानन्तर एक काम्पिल्य नामका सुन्दर नगर था उसमें शिखी नामका ब्राह्मण रहता था। उसकी इषु नामको खो थी ॥४२॥ उन दोनोंके एक ऐर नामका पुत्र था जो अत्यधिक लाड़-प्यारके कारण महाअविनयी हो गया था। उसकी चेष्टाएँ हजारों उलाहनोंका कारण हो रही थीं॥४३॥ धनका उपार्जन करना, विद्या ग्रहण करना और धर्मसंचय करना ये तीनों कार्य यद्यपि मनुष्यके अपने अधीन हैं फिर भी प्रायःकर विदेशमें ही इनकी सिद्धि होती है ॥४४॥ ऐसा विचारकर माता-पिताने दुःखी होकर उसे घरसे निकाल दिया जिससे केवल दो कपड़ोंको धारण करता हुआ वह दुःखो अवस्था में राजगृह नगर पहुँचा ।।४५।। वहाँ एक वैवस्वत नामका विद्वान् था जो धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण था और विद्याध्ययनमें श्रम करनेवाले एक हजार शिष्योंसे सहित था ॥४६॥ ऐर उसीके पास विधिपूर्वक धनुर्विद्या सीखने लगा और कुछ ही समयमें उसके हजार शिष्योंसे भी अधिक निपुण हो गया ॥४७॥ राजगृहके राजाने जब यह सुना कि वैवस्वतने किसी विदेशी बालकको हमारे पुत्रोंसे भी अधिक कुशल बनाया है तब वह यह जानकर क्रोधको प्राप्त हुआ ॥४८॥ राजाको कुपित सुनकर अस्त्रविद्याके गुरु वैवस्वतने ऐरको ऐसी शिक्षा दी कि तू राजाके सामने मूर्ख बन जाना ॥४९॥ तदनन्तर राजाने, मैं तुम्हारे सब शिष्योंकी शिक्षा देलूँगा, यह कहकर शिष्योंके साथ वैवस्वत गुरुको बुलाया ॥५०॥ तदनन्तर राजाने सब शिष्योंसे क्रमसे बाण छुड़वाये और सबने यथायोग्य निशाने बींध दिये ॥५१॥ इसके बाद ऐरसे भी बाण छुड़वाये तो उसने इस रीतिसे बाण छोड़े कि राजाने उसे मूर्ख समझा ॥५२॥ जब राजाने यह समझ लिया कि लोगोंने इसके विषयमें १. विलालितः म. । २. सिद्धमश्नुते म. । ३. शिष्यतः म. । ४. लक्षपातं च म. । ५. येन तादृशः क.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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