Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 535
________________ चतुर्विशतितम पर्व ४८५ अमुं कमपि वैदेशं दुरभिप्रायकारिणीम् । गृहीत मूर्धजाकृष्टां प्रसभं दुष्टकन्यकाम् ॥१७॥ इत्युक्त्वा ते सुसनद्धाः समुद्यतमहायुधाः । नृपा दशरथान्तेन चलिताः क्रुद्धचेतसः ॥९८॥ ततः समाकुलीभूतो वरं शुभमतिर्जगौ । मद्र यावन्नृपानेतान् सुक्षुब्धान् वारयाम्यहम् ॥१९॥ रथमारोप्य तावत्त्वं कन्यामन्तर्हितो मव । कालज्ञानं हि सर्वेषां नयानां मूर्धनि स्थितम् ॥१०॥ एवमुक्तो जगादासौ स्मितं कृत्वातिधीरधीः । विश्रब्धो भव माम त्वं पश्यैतान्कांदिशीकृतान् ॥१०॥ इत्युक्त्वा रथमारुह्य संयुक्तं प्रौढवाजिभिः। भृशं संववृते भीमः शरन्मध्याह्नमानुभाः ॥१०२॥ उत्तार्य केकया चाशु रथैवाहं रणाङ्गणे । तस्थौ पौरुषमालम्ब्य तोत्रप्रग्रहधारिणी ।।१०३॥ उवाच च प्रयच्छाज्ञा नाथ कस्योपरि दतम् । चोदयामि रथं तस्य मृत्युरद्यातिवत्सलः ॥१०४॥ जगादासौ किमत्रान्यैर्वराकैनिहतैर्न रैः । मू‘नमस्य सैन्यस्य पुरुष पातयाम्यहम् ॥१०५॥ यस्यैतत्पाण्डुरं छत्रं विभाति शशिविभ्रमम् । एतस्याभिमुखं कान्ते रथं चोदय पण्डिते ॥१०६।। एवमुक्ते तयात्यन्तं धीरया वाहितो रथः । समुच्छ्रितसितच्छत्रस्तरङ्गितमहाध्वजः ॥१०७॥ केतुच्छायामहाज्वाले तत्र दम्पतिदेवते । रथाग्नौ योधशलभाः दृष्ट्वा नष्टाः सहस्रशः ॥१०॥ दशस्यन्दननिर्मुक्तैर्नाराचैरर्दिता नृपाः । क्षणात्पराङ्मुखीभूताः परस्परविलविनः ॥१०९॥ ततो हेमप्रभेणेते चोदिता लजिता जिताः । निवृत्य पुनरारब्धा हन्तुं दाशरथं रथम् ॥११०॥ ऐसे परदेशी किसी मनुष्यको वरा है सो इसका अभिप्राय दुष्ट है। इसके केश पकड़कर खींचो और इसे जबरदस्ती पकड़ लो ।।९५-९७।। ऐसा कहकर वे राजा बड़े-बड़े शस्त्र उठाते हुए युद्धके लिए तैयार हो गये तथा क्रुद्धचित्त होकर राजा दशरथकी ओर चल पड़े ॥९८॥ तदनन्तर कन्याके पिता शुभमतिने घबड़ाकर दशरथसे कहा कि हे भद्र ! जबतक मैं इन क्षुभित राजाओंको रोकता हूँ तबतक तुम कन्याको रथपर चढ़ाकर कहीं अन्तहित हो जाओछिप जाओ क्योंकि समयका ज्ञान होना सब नयोंके शिरपर स्थित है अर्थात् सब नीतियोंमें श्रेष्ठ नीति है ।।९९-१००। इस प्रकार कहनेपर अत्यन्त धीर-वीर बुद्धिके धारक राजा दशरथने मुसकराकर कहा कि हे माम! निश्चिन्त रहो और अभी इन सबको भयसे भागता हुआ देखो ॥१०१॥ इतना कहकर वे प्रौढ़ घोड़ोंसे जुते रथपर सवार हो शरदऋतुके मध्याह्न काल सम्बन्धी सूर्यके समान अत्यन्त भयंकर हो गये ।।१०२।। केकयाने रथके चालक सारथिको तो उतार दिया और स्वयं शीघ्र ही साहसके साथ चाबुक तथा घोड़ोंकी रास सँभालकर युद्धके मैदानमें जा खड़ी हुई ॥१०३॥ और बोली कि हे नाथ ! आज्ञा दीजिए, किसके ऊपर रथ चलाऊँ ? आज मृत्यु किसके साथ अधिक स्नेह कर रही है ? ॥१०४॥ दशरथने कहा कि यहाँ अन्य क्षुद्र राजाओंके मारनेसे क्या लाभ है ? अतः इस सेनाके मस्तकस्वरूप प्रधान पुरुषको ही गिराता हूँ। हे चतुर वल्लभे। जिसके ऊपर यह चन्द्रमाके समान सफेद छत्र सुशोभित हो रहा है इसीके सन्मुख रथ ले चलो ॥१०५-१०६॥ ऐसा कहते ही उस धीर वीराने जिसपर सफेद छत्र लग रहा था तथा बड़ी भारी ध्वजा फहरा रही थी ऐसा रथ आगे बढ़ा दिया ॥१०७॥ जिसमें पताकाकी कान्तिरूपी बड़ी-बड़ी ज्वालाएँ उठ रही थीं तथा दम्पती ही जिसमें देवता थे ऐसे रथरूपी अग्निमें हजारों योधारूपी पतंगे नष्ट होते हुए दिखने लगे ॥१०८|| दशरथके द्वारा छोड़े बाणोंसे पीड़ित राजा एक दूसरेको लांघते हुए क्षण-भरमें पराङ्मुख हो गये ॥१०९।। तदनन्तर पराजित होनेसे लज्जित हुए राजाओंको हेमप्रभने ललकारा, जिससे वे लौटकर १. गृहीतमूर्द्धजा-म. । २. दशरथं तेन म., ज., क., ब.। ३. क्षुद्रचेतसः म.। ४. भानुभम् म.। ५. रथ वाहान् क. । ६. पश्य म.। ७. पातयाम्यथ ब.। ८. भृशम् ख.। ९. -रारब्धं म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604