Book Title: Padmapuran Part 1
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 533
________________ चतुर्विंशतितमं पर्व ४८३ आश्रिताश्रयतो भिन्नो लोको द्विविध उच्यते । आश्रिता जीवनिर्जीवा पृथिव्यादिस्तदाश्रयाः ॥ ७० ॥ तत्र नानाभवोत्पत्तिः स्थितिर्नश्वरता तथा । ज्ञायते यदिदं प्रोक्तं लोकशत्वं सुदुर्गमम् ॥७१॥ पौर्वापर्यो धरो भूर्य द्वीपदेशादिभेदतः । स्वभावावस्थिते लोके बभूवास्यास्तदुत्तमम् ॥७२॥ संवाहकका द्वेधा तत्रैका कर्मसंश्रया । शय्यौपचारिका चान्या प्रथमा तु चतुर्विधा ॥७३॥ स्वङ्मांसास्थिमनःसौख्यादेते श्वासामुपक्रमाः । संस्पृष्टं च गृहीतं च भुक्तितं चलितं तथा ॥७४॥ आहतं भङ्गितं विद्धं पीडितं भिन्नपाटितम् । मृदुमध्य प्रकृष्टत्वात्तत्पुनर्भिद्यते त्रिधा ||७५ || त्वक्सुखं सुकुमारं तु मध्यमं मांससौख्यकृत् । उत्कृष्टमस्थिसौख्याय मृदुगीति मनः सुखम् ॥७६॥ दोषास्तस्याः प्रतीपं यलोम्नामुद्वर्तनं तथा । निर्मासपीडितं वाढं केशाकर्षणमद्भुतम् ॥ ७७ ॥ भ्रष्टप्राप्तममार्गेण प्रयातमतिभुग्नकम् । आदेशाहतमत्यर्थमव सुप्तप्रतीपकम् ॥ ७८ ॥ एभिर्दोषैर्विनिर्मुक्तं सुकुमारमतीव च । योग्यदेशप्रयुक्तं च ज्ञाताकूतं च शोभनम् ॥७९॥ करणैर्विविधैर्या तु जन्यते चित्तसौख्यदा । संवाहनावगम्या सा शय्योपचरणात्मिका ॥८०॥ संवाहनकलामेतामङ्गप्रत्यङ्गगोचराम् । अवेदसौ यथा कन्या नान्या नारी तथा घनम् ॥ ८१ ॥ शरीरवेषसंस्कारकौशलं च कला परा । स्नानमूर्धजवासादि निरचैषीदिमां च सा ॥८२॥ कीड़ा है इस प्रकार वह अनेक भेदवाली क्रीड़ामें अत्यन्त निपुण थी || ६८-६९ || आश्रित और आश्रयके भेदसे लोक दो प्रकारका कहा गया है। इनमेंसे जीव और अजीव तो आश्रित हैं तथा पृथ्वी आदि उनके आश्रय हैं ||७० || इसी लोकमें जीवकी नाना पर्यायोंमें उत्पत्ति हुई है, उसीमें यह स्थिर रहा है तथा उसीमें इसका नाश होता है यह सब जानना लोकज्ञता है । यह लोकज्ञता प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है ॥ ७१ ॥ पूर्वापर पर्वत, पृथ्वी, द्वीप, देश आदि भेदों में यह लोक स्वभावसे ही अवस्थित है । केकयाको इसका उत्तम ज्ञान था ॥ ७२ ॥ 1 संवाहन कला दो प्रकारकी है - उनमेंसे एक कर्मसंश्रया है और दूसरी शय्योपचारिका । त्वचा, मांस, अस्थि और मन इन चारको सुख पहुँचानेके कारण कर्मसंश्रया के चार भेद हैं अर्थात् किसी संवाहनसे केवल त्वचाको सुख मिलता है, किसीसे त्वचा और मांसको सुख मिलता है, किसीसे त्वचा, मांस और हड्डीको सुख मिलता है और किसीसे त्वचा, मांस, हड्डी एवं मन इन चारों को सुख प्राप्त होता है। इसके सिवाय इसके संपृष्ट, गृहीत, भुक्तित, चलित, आहत, भंगित, विद्ध, पीडित और भिन्नपीडित ये भेद भी हैं। ये ही नहीं मृदु, मध्य और प्रकृष्टके भेदसे तीन भेद और भी होते हैं ।।७३-७५ || जिस संवाहनसे केवल त्वचाको सुख होता है वह मृदु अथवा सुकुमार कहलाता है । जो त्वचा और मांसको सुख पहुँचाता है वह मध्यम कहा जाता है और जो त्वचा, मांस तथा हड्डीको सुख देता है वह प्रकृष्ट कहलाता है। इसके साथ जब संगीत और होता है तब वह मनःसुखसंवाहन कहलाने लगता है || ७६ || इस संवाहन कला निम्नलिखित दोष भी हैं-- शरीरके रोमोंको उलटा उद्वर्तन करना, जिस स्थानमें मांस नहीं है वहाँ अधिक दबाना, केशाकर्षण, अद्भुत, भ्रष्टप्राप्त, अमार्गप्रयात, अतिभुग्नक, अदेशाहत, अत्यर्थं और अवसुप्तप्रतीपक, जो इन दोषोंसे रहित है, योग्यदेश में प्रयुक्त है तथा अभिप्रायको जानकर किया गया है ऐसा सुकुमारसंवाहन अत्यन्त शोभास्पद होता है ॥७७-७९ ॥ जो संवाहन क्रिया अनेक कारण अर्थात् आसनोंसे की जाती है वह चित्तको सुख देनेवाली शय्योपचारिका नामकी क्रिया जाननी चाहिए ||८०|| अंग-प्रत्यंगसे सम्बन्ध रखनेवाली इस संवाहनकलाको जिस प्रकार वह कन्या जानती थी उस प्रकार अन्य स्त्री नहीं जानती थी ॥ ८१ ॥ स्नान करना, शिरके बाल गूंथना तथा उन्हें सुगन्धित आदि करना यह शरीर संस्कार वेषकौशल नामकी कला है सो १. चासा-ख., वासा ज । २. दोषास्तस्या म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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